Study4General.com इतिहास 1935 भारत शासन अधिनियम: भारतीय राजनीति का एक मील का पत्थर

1935 भारत शासन अधिनियम: भारतीय राजनीति का एक मील का पत्थर

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भारत शासन अधिनियम का परिचय

1935 भारत शासन अधिनियम, जिसे भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है, 2 अगस्त 1935 को ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया। यह अधिनियम ब्रिटिश भारत में प्रशासनिक और राजनीतिक परिवर्तन को स्थापित करने का प्रयास था, जिसके तहत भारतीयों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में स्व-शासन की दिशा में एक कदम उठाना और भारतीयों को अपने प्रशासन में अधिक भागीदारी देने का अवसर प्रदान करना था।

यह अधिनियम, 1919 के अवधि के बाद में आया, जो संवैधानिक सुधारों की दिशा में एक नई शुरुआत का संकेत देता है। 1935 का अधिनियम ब्रिटिश राज में भारतीयों की राजनीतिक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के रूप में कार्य करता था और इसे ‘भारतीय विधायिका’ के गठन के लिए आधार बनाया गया था। इसके तहत, प्रांतों के लिए एक नया शासन ढांचा स्थापित किया गया, जो भारतीयों को स्थानीय निर्णय लेने की अधिक स्वतंत्रता प्रदान करता था। इसके अतिरिक्त, अधिनियम में केंद्रीय विधान सभा का भी प्रावधान था, जिसमें भारतीय सदस्य थे, जिससे कि भारतीय राजनीति में भारतीयों की भूमिका बढ़ सके।

हालांकि, यह अधिनियम पूर्ण स्वराज का आश्वासन नहीं देता था और इसके विभिन्न पहलुओं पर भारतीय नेताओं की आलोचना भी हुई। इसके बावजूद, 1935 का भारत शासन अधिनियम भारतीय राजनीति के विकास में एक महत्वपूर्ण चरण था, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अग्रिम पंक्ति के नेताओं को प्रेरित किया। यह अधिनियम न केवल एक संवैधानिक दस्तावेज था, बल्कि यह भारतीय राजनीतिक चेतना का भी प्रतीक बन गया।

अधिनियम की पृष्ठभूमि

1935 का भारत शासन अधिनियम भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, जिसका निर्माण ऐतिहासिक परिस्थितियों के संदर्भ में किया गया था। यह अधिनियम ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारतीय राजनीतिक सपने और स्वतंत्रता संग्राम की चिंताओं को परिलक्षित करता है। 19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत में, भारतीय समाज में स्वतंत्रता के लिए एक व्यापक आंदोलन प्रारंभ हुआ, जिसमें विभिन्न वर्गों और समुदायों ने भाग लिया। इस अवधि में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग जैसी राजनीतिक पार्टियों ने स्वतंत्रता की आकांक्षा को व्यक्त किया और अंग्रेजों के खिलाफ एकजुटता का प्रदर्शन किया।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, यह स्पष्ट हो गया कि भारतीय जनता को राजनीतिक अधिकारों का बुनियादी अनुभव चाहिए। इससे राजनीतिक विचारधाराएं विकसित होने लगीं, जो भारतीय समाज की विविधता का प्रतिनिधित्व करती थीं। इस संदर्भ में, कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य रखा, जबकि मुस्लिम लीग ने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अलग विश्लेषण प्रस्तुत किया। यह स्थिति ब्रिटिश शासन के लिए चुनौतीपूर्ण थी, जिसके कारण उन्होंने एक ऐसा अधिनियम लाने का विचार किया जो भारतीय राजनीति को एक नया स्वरूप दे सके।

ब्रिटिश सरकार की यह सोच थी कि एक नई नीति के तहत भारत में संवैधानिक सुधार लाकर भारतीय नेताओं को कुछ हिस्सा देकर, वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की उग्रता को कम कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में, विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के मध्य संघर्ष ने यह सुनिश्चित किया कि 1935 का अधिनियम भारत की राजनीतिक संरचना को बदलने में एक महत्वपूर्ण कदम होगा। यह अधिनियम उन विश्लेषणों और संघर्षों का परिणाम था, जो भारतीय राजनीति के प्रारंभिक दौर में पेश आए।

मुख्य विशेषताएँ

1935 का भारत शासन अधिनियम भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है। इस अधिनियम के तहत, केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया, जिससे एक स्पष्ट राजनीतिक संरचना का निर्माण हुआ। यह विभाजन विभिन्न स्तरों पर शासन को अधिक संवैधानिक और व्यवस्थित बनाने में सहायक हुआ।

इस अधिनियम के अंतर्गत प्रांतीय स्वायत्तता का प्रावधान किया गया, जिसने भारतीय राज्यों को अधिक राजनीतिक स्वतंत्रता प्रदान की। प्रांति शासन में सुधार लाने के लिए, यह आवश्यक समझा गया कि प्रांतीय सरकारों को उनके अधिकार और जिम्मेदारियों का सटीक वितरण किया जाए। यह नीति भारतीय नेताओं को अपने क्षेत्रों में अधिक प्रभावी ढंग से कार्य करने का अवसर प्रदान करती है। प्रांतीय स्वायत्तता की यह भावना, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नेतृत्व की भूमिका को और मजबूत बनाती है।

1935 के अधिनियम में निर्वाचन प्रणाली के सुधारों ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस अधिनियम के तहत, एक नई प्रतिनिधित्व प्रणाली स्थापित की गई, जिसमें निश्चित स्थानों पर चुनाव घोषणा की गई आयोजित किए गए। इससे व्यापक जन भागीदारी सुनिश्चित हुई और भारतीय जनता को अपनी आवाज उठाने का मौका मिला। निर्वाचन प्रणाली में ये सुधार, लोकतंत्र की दिशा में एक सकारात्मक कदम माना गया। इस प्रणाली ने राजनीतिक पार्टियों को अधिक सक्रिय बनाते हुए, जनसंवाद को प्रोत्साहित किया और राजनीतिक जागरूकता को बढ़ाने का कार्य किया।

इस प्रकार, 1935 का भारत शासन अधिनियम, केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों के विभाजन, प्रांतीय स्वायत्तता और निर्वाचन प्रणाली के सुधार जैसे प्रमुख विशेषताओं के माध्यम से भारतीय राजनीतिक संरचना में एक नई दिशा का संकेत देता है।

राजनीतिक पुनर्गठन

1935 भारत शासन अधिनियम भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था, जिसने प्रांतीय विधायिकाओं और मंत्रालयों के गठन के माध्यम से राजनीतिक पुनर्गठन की प्रक्रिया को मजबूत किया। यह अधिनियम भारतीय उपमहाद्वीप में स्वायत्त प्रांतों के निर्माण का आधार बना, जिससे स्थानीय सरकार की शक्तियाँ बढ़ गईं। यह परिवर्तन भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय खोलने वाला था, जिससे भारतीय नेताओं को राजनीतिक प्रक्रिया में अधिक सक्रियता का अनुभव हुआ।

प्रांतीय विधायिकाएँ भारत के विविध प्रांतों में स्थानीय शासन की संस्थाएँ थीं। इन विधायिकाओं का गठन एक द्व chambers प्रणाली के अंतर्गत किया गया, जिसमें विधानसभा और विधान परिषद शामिल थे। विधानसभा का चुनाव सर्वसामान्य मतदाताओं द्वारा किया जाता था, जबकि विधान परिषद में सदस्य चुनाव और नामांकित दोनों तरीकों से आते थे। इस व्यवस्था ने स्थानीय इच्छाओं और आवश्यकताओं को राजनीतिक मंच पर लाने का अवसर प्रदान किया।

अधिनियम के अंतर्गत मंत्रालयों का गठन भी एक महत्वपूर्ण कदम था। प्रत्येक प्रांत में एक मंत्री मंडल बनाया गया, जो इकाई के प्रशासन का संचालन करता था। यह मंत्री मंडल उस समर्थन पर निर्भर करता था जो विधानसभा में प्राप्त होता था। इस प्रकार, मंत्री मंडल का कार्यक्षेत्र और जिम्मेदारियां विधायिका द्वारा निर्धारित की गईं, जिससे यह सुनिश्चित किया गया कि स्थानीय सरकार को अधिक स्वतंत्रता और जवाबदेही दी जा सके।

इस राजनीतिक पुनर्गठन ने भारतीय राजनीति में समृद्धि और विविधता का आधार स्थापित किया। यह उस समय का एक महत्वपूर्ण परिवर्तन था, जब भारतीय जनसंख्या अपने स्वतंत्रता संग्राम में और अधिक भागीदारी की अपेक्षा कर रही थी।

सामाजिक परिवर्तन

1935 का भारत शासन अधिनियम भारतीय समाज में सामाजिक परिवर्तन को प्रभावी रूप से प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण दस्तावेज था। इस अधिनियम ने राजनीतिक भागीदारी को विस्तारित करने में सहायता की, जिससे विभिन्न वर्गों, जातियों और समुदायों के बीच की राजनीतिक सक्रियता में वृद्धि हुई। किसानों, श्रमिकों और अन्य सताए समूहों को अब अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने और उनकी राजनीतिक आवाज को उठाने का अवसर मिला। इस प्रकार, राजनीतिक व्यवस्था में आम जन को अधिक सशक्तीकरण मिला।

इसके अतिरिक्त, इस अधिनियम ने भारतीय समाज में वर्ग-संरचना के बदलाव में भी योगदान दिया। पहले, भारतीय समाज मुख्यतः एक पारंपरिक वर्ग विभाजन में बंटा हुआ था, जिसमें आर्थिक और सामाजिक असमानताओं के कारण विभिन्न वर्गों के बीच संवाद की कमी थी। 1935 के अधिनियम के तहत, बहु-स्तरीय चुनावी प्रणाली ने समाज के विविध समूहों को आपस में जोड़ने और साक्षरता स्तर को बढ़ाने में सहायता की, जिससे सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिला।

आधुनिकता की ओर बढ़ते हुए, 1935 का अधिनियम एक ऐसा मंच प्रदान करता है जिसने भारत में कौमी एकता और सामुदायिक पहचान को सुदृढ़ किया। यह अधिनियम एक राजनीतिक चहुल-हुल में सामाजिक बदलाव का संधान था, जिसमें महिला भागीदारी सहित विभिन्न जनसंख्या समूहों की आवाज को बल मिला। इस प्रकार, 1935 का भारत शासन अधिनियम न केवल राजनीतिक लाभ प्रदान करता है, बल्कि भारतीय समाज में व्यापक सामाजिक परिवर्तन का आधार भी बनता है।

विपक्ष और आलोचना

1935 भारत शासन अधिनियम को भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर माना जाता है, लेकिन इसके लागू होने के बाद से ही इसे विभिन्न नेताओं और राजनीतिक दलों की आलोचना का सामना करना पड़ा। कई प्रमुख राजनीतिक व्यक्तित्वों ने इस अधिनियम को असंवैधानिक और भारतीय संस्कृति के विपरीत बताया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जो उस समय सबसे प्रमुख राजनीतिक दल थी, ने इस अधिनियम के खिलाफ तीव्र विरोध प्रकट किया। नेता जैसे कि महatma Gandhi और Jawaharlal Nehru ने इसे ब्रिटिश साम्राज्य का एक और प्रयास माना, जिसमें भारतीयों को असली स्वायत्तता देने के बजाय केवल एक सीमित स्वराज की पेशकश की गई।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अधिनियम के उस हिस्से की विशेष रूप से आलोचना की, जिसमें प्रांतों को स्वायत्तता देने का वादा किया गया था, क्योंकि यह स्वायत्तता पूरी तरह से केंद्रीय सरकार के नियंत्रण में थी। इसके अलावा, अधिनियम ने प्रांतीय विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व के लिए उच्च शिक्षा की आवश्यकता रखी, जिससे निम्न जातियों और गरीब वर्गों के लिए अपनी आवाज उठाना और भी कठिन हो गया।

इसके अलावा, मुस्लिम लीग जैसे अन्य राजनीतिक दलों ने भी इस अधिनियम की आलोचना की। मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने इसे वैकल्पिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता की पेशकश के रूप में देखा, जिसमें वास्तविक सत्ता भारतीयों के हाथ में नहीं थी। उन्होंने इसे ब्रिटिश साम्राज्य का एक और चालाक तरीका माना जिसके अंतर्गत भारतीय जनता को बिना किसी वास्तविक अधिकार के नियंत्रित किया जाएगा। इस प्रकार, 1935 भारत शासन अधिनियम के खिलाफ उठाए गए विरोध और आलोचना ने भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि भारतीय जनता पूर्ण स्वतंत्रता की आकांक्षा रखती है।

अधिनियम का प्रभाव

1935 भारत शासन अधिनियम ने भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए, जो न केवल तत्काल प्रभाव डाले, बल्कि दीर्घकालिक प्रभाव भी उत्पन्न किए। इस अधिनियम ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गति में महत्वपूर्ण बदलाव किया। यह अधिनियम राजनीतिक अभिनवताओं को संबोधित करने का एक प्रयास था, जिसका उद्देश्य भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को सुधारना था। इसके लागू होने से भारतीय राजनीतिक दलों को अधिक स्वायत्तता और जिम्मेदारी मिली, जिससे वे अपनी स्वतंत्रता की दिशा में और अधिक प्रभावी ढंग से काम कर सके।

हालांकि, इस अधिनियम के साथ कई चुनौतियां भी आईं। राज्यों के बीच स्वायत्तता बढ़ाने के दावे ने राजनीतिक स्थिरता को तो प्रभावित किया, लेकिन साथ ही अस्थिरता भी उत्पन्न की। विभिन्न राजनीतिक दलों में एकजुटता का अभाव और भिन्न विचारधाराओं के बीच संघर्ष ने भारतीय राजनीति में घर्षण पैदा किया। उदाहरण के लिए, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुसलमान लीग के बीच टकराव बढ़ा, जिसने साम्प्रदायिक दंगों की ओर आवाज उठाई। इस प्रकार, यह अधिनियम न केवल राजनीति में स्वायत्तता की प्राप्ति बल्कि राजनीतिक संघर्ष और विभाजन के लिए भी जिम्मेदार बना।

जब हम इस अधिनियम के बाद के समय को देखते हैं, तो स्वतंत्रता संग्राम में एक दृढ़ता दिखाई देती है। महात्मा गांधी और अन्य नेताओं ने इस नई पृष्ठभूमि में अपनी रणनीतियों को पुनर्गठित किया। विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों का उदय इस समय में हुआ, जिसने स्वतंत्रता संघर्ष को नई दिशा दी। कुल मिलाकर, 1935 भारत शासन अधिनियम ने भारत की राजनीतिक परिष्कृति में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर स्थापित किया, जिसकी गूंज आज भी सुनाई देती है।

द्वितीय विश्व युद्ध और अधिनियम

द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान, भारतीय राजनीति और प्रशासन में कई महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले। 1935 भारत शासन अधिनियम ने देश में एक नया राजनैतिक ढांचा स्थापित किया था, जिसमें भारत को स्वायत्तता के कुछ तत्व प्रदान किए गए थे। इसी समय में, युद्ध के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य को आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को चुनौती दी।

युद्ध के आरंभ में, ब्रिटिश अधिकारियों ने भारत को युद्ध की घोषणा के बारे में कोई जानकारी नहीं दी, इसके परिणामस्वरूप भारतीय राजनीतिक पार्टियों द्वारा व्यापक विरोध देखने को मिला। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने युद्ध में शामिल होने के लिए शर्तें रखी, जिसमें पूर्ण स्वराज की मांग शामिल थी। इस स्थिति ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में और अधिक उग्रता ला दी, जिससे नेताओं ने ब्रिटिश नीति में बदलाव की आवश्यकता महसूस की।

इस अवधि के दौरान, 1935 अधिनियम के तहत स्थापित प्रांतों में प्रतिनिधित्व के बावजूद, केंद्रीय प्रशासन में भारतीय भागीदारी सीमित बनी रही। युद्ध के प्रभाव में, ब्रिटिश सरकार ने भारत में अपने प्रशासनिक दृष्टिकोण में बदलाव लाने का प्रयास किया। इसके तहत, उन्होंने “क्रिप्स मिशन” जैसे प्रस्ताव पेश किए, जो भारतीय मांगों को ध्यान में रखते हुए तैयार किए गए थे।

हालांकि, ये प्रयास भारतीय राजनीतिक दलों द्वारा नकार दिए गए, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि युद्ध की स्थितियों ने भारतीय राजनीतिक एकता को और मजबूती दी। इस प्रकार, द्वितीय विश्व युद्ध ने 1935 के अधिनियम के प्रभाव को बढ़ाने के साथ-साथ भारत की स्वतंत्रता की मांग को और अधिक प्रबल बना दिया।

निष्कर्ष और वर्तमान परिप्रेक्ष्य

1935 का भारत शासन अधिनियम भारतीय राजनीतिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय राजनीति में नए दिशा-निर्देश प्रस्तुत किए। इस अधिनियम ने केंद्रीय विधान सभा और प्रांतों के लिए एक प्रारंभिक स्वायत्तता का ढांचा पेश किया, जिसने भारतीय जनसंघ को सशक्त बनाने का प्रयास किया। इसके अंतर्गत, निर्वाचन प्रक्रिया को भी विस्तृत रूप से सुधारा गया, जिससे भारतीय जनसंख्या को राजनीतिक भागीदारी का एक आवश्यक मार्ग प्रदान किया गया।

हालांकि, इस अधिनियम में कई सीमाएँ थीं, जिनमें प्रांतीय स्वायत्तता की सीमितता और संवैधानिक सुधारों की अधूरी प्रकृति शामिल थीं। इन सीमाओं के बावजूद, 1935 का अधिनियम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक महत्वपूर्ण बिंदु बना, जिसने विभिन्न राजनीतिक दलों के आंदोलनों को तेज़ किया। आज, इस अधिनियम के अनुभवों से हमें यह सिखने को मिलता है कि किसी भी राजनीतिक प्रणाली में स्वायत्तता और भागीदारी की महत्वता को समझना अनिवार्य है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, 1935 के अधिनियम की अध्ययन से हमें यह समझ में आता है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती और नागरिकों की भागीदारी के लिए एक सुदृढ़ संविधान की आवश्यकता है। यह आवश्यक है कि आज के भारत में, हमें लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का पालन करने के लिए निरंतर प्रयास करना चाहिए, ताकि हम एक अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण कर सकें। इस प्रकार, 1935 का भारत शासन अधिनियम न केवल अतीत की एक कहानी है, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ भी है।

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