Study4General.com भारतीय इतिहास सूरत विभाजन: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ऐतिहासिक मोड़

सूरत विभाजन: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ऐतिहासिक मोड़

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परिचय

सूरत विभाजन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ है। यह घटना 1907 में सूरत में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के दौरान घटित हुई थी। उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, स्वायत्तता और स्वतंत्रता की दिशा में अपने संघर्ष को धीरे-धीरे तेज कर रही थी। परंतु, पार्टी के भीतर उभरती हुई विचारधारा के विभाजन ने इस अधिवेशन को एक ऐतिहासिक मोड़ पर ला खड़ा किया। ये विभाजन मुख्यतः दो धड़ों में हुआ — नरमपंथी और उग्रपंथी।

नरमपंथियों के नेतृत्व में गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नेता थे, जो ब्रिटिश शासन से संवैधानिक सुधारों और शांतिपूर्ण तरीके से स्वायत्तता की मांग कर रहे थे। इसके विपरीत, उग्रपंथियों के नेतृत्व में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेता थे, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ सख्त और तत्काल कदम उठाने की वकालत कर रहे थे। इस वैचारिक संघर्ष ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर गंभीर असहमति को जन्म दिया।

सूरत अधिवेशन के समय, दोनों गुटों के बीच तनाव उग्र हो गया। नरमपंथी और उग्रपंथी अपने-अपने विचारों और रणनीतियों के प्रति दृढ़ संकल्पित थे। ऐसे में, इस अधिवेशन का उद्देश्य संगठन की एकता को बनाए रखना था, किन्तु विभाजन अपरिहार्य हो गया। स्वराज्य की दिशा में दोनों गुटों का दृष्टिकोण भिन्न था, जिससे कोई समाधान न निकल पाया और कांग्रेस पार्टी एकता के बजाय फूट का शिकार हो गई।

1907 का सूरत अधिवेशन न केवल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम की दिशा और गति को भी अद्वितीय रूप से प्रभावित किया। इस विभाजन ने यह स्पष्ट किया कि भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में वैचारिक विविधता और नेतृत्व के विभिन्न दृष्टिकोणों का स्थान हमेशा महत्वपूर्ण रहेगा।

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भिन्न दृष्टिकोण: नरमपंथी और गरमपंथी

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर 20वीं सदी के प्रारंभ में दो प्रमुख विचारधाराएं स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आईं – नरमपंथी और गरमपंथी। इस विभाजन का सबसे प्रमुख उदाहरण सूरत विभाजन था, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा को रूपांतरित किया।

नरमपंथी, जिनका नेतृत्व मोतीलाल नेहरू, गोपाल कृष्ण गोखले और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे नेताओं ने किया, अंग्रेज़ी राज से भारतीयों के अधिकारों की वकालत संवैधानिक और शांतिपूर्ण तरीकों से करते थे। इनके विचारों का केंद्र था कि सभ्य और वैधानिक रूप से अंग्रेज़ी प्रशासन से मांगों की पूर्ति की जाय। वे विधायिका में संशोधनों और अंग्रेज़ प्रशासन में सुधार की मांग करते थे, जिनमें भारतीयों की भागीदारी बढ़ाने पर जोर था।

दूसरी ओर, गरमपंथी, जिनमें बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेता प्रमुख थे, भारतीय स्वराज्य की प्राप्ति के लिए अधिक आक्रामक रूप को अपनाने के लिए तैयार थे। गरमपंथियों का विश्वास था कि केवल सक्रिय संघर्ष और सशक्त विरोध ही अंग्रेज़ी राज को भारत छोड़ने के लिए विवश कर सकता है। उनके अनुसार, नरमपंथियों के संवैधानिक उपाय ब्रिटिश शासन की जकड़न को कमजोर करने के लिए पर्याप्त नहीं थे।

गरमपंथियों ने ‘स्वराज’ का नारा दिया और देशभर में जन आंदोलन का समर्थन किया। उन्होंने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार और स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए कई अभियान चलाए। इसके विपरीत, नरमपंथी इस तरह के आक्रामक आंदोलनों को अव्यावहारिक और जोखिमभरा मानते थे।

यह स्पष्ट है कि सूरत विभाजन के बाद कांग्रेस के भीतर इन दोनों दृष्टिकोणों का परस्पर संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। नरमपंथियों और गरमपंथियों के इस अंतराल ने यह भी दर्शाया कि ब्रिटिश शासन के प्रति भारतीय दृष्टिकोण में विविधता थी, जो अंततः भारतीय राजनीति की दशा और दिशा को गहराई से प्रभावित कर गई।

विभाजन की पृष्ठभूमि

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक वर्षों में, नरमपंथियों का प्रभुत्व काफी अधिक था। नरमपंथी नेतागण संविधानिक रास्तों, याचिकाओं और शांति प्रिय आंदोलनों पर विश्वास रखते थे और ब्रितानी सरकार से सुधारों की मांग करते थे। इस दृष्टिकोण ने प्रारंभिक चरणों में कांग्रेस के कार्य को दिशा दी, लेकिन जल्द ही इस रणनीति की सीमाएं स्पष्ट होने लगीं।

जैसे ही भारत में स्वतंत्रता की लहर अधिक गहराई, कांग्रेस के भीतर गरमपंथियों का एक नया धड़ा उभर आया। बंगाल विभाजन, जिसे 1905 में लार्ड कर्ज़न द्वारा लागू किया गया था, ने विभाजन की संभावनाओं को बढ़ावा दिया। बंग-भंग आंदोलन ने बड़े पैमाने पर जन-जागृति को प्रेरित किया, और इसने गरमपंथियों की लोकप्रियता में एक अद्वितीय तीव्रता ला दी। उनका मानना था कि केवल सख्त विरोध प्रदर्शन और सशक्त आंदोलनों से ही औपनिवेशिक सरकार को झुकाया जा सकता है।

गरमपंथियों का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, और लाला लाजपत राय जैसे प्रमुख नेताओं द्वारा किया गया, जिन्होंने नरमपंथियों की रणनीतियों का खुले तौर पर विरोध किया। इन नेताओं की सक्रियता और उनकी आक्रामक नीतियों ने पूरे देश में जागरूकता और प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दिया। परिणामस्वरूप, कांग्रेस के भीतर दोनों पक्षों के बीच वैचारिक और कार्यनीतिक मतभेद गहराने लगे।

1906 के कलकत्ता अधिवेशन में, गरमपंथियों की प्रमुखता स्पष्ट हो चुकी थी, जब दादा भाई नौरोजी ने स्वराज्य की मांग रखी। इस अधिवेशन ने सूरत विभाजन के बीज अंकुरित किए, जो अगले ही साल अपने चरम पर पहुँचे। सूरत अधिवेशन में स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि पार्टी के नेतृत्व में गहरा विभाजन अनिवार्य हो गया। इन घटनाओं ने कांग्रेस की दिशा को बदल दिया और भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को नए सिरे से परिभाषित किया।

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1907 का सूरत अधिवेशन

1907 का सूरत अधिवेशन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह अधिवेशन ही वह मंच था, जहां कांग्रेस के भीतर दो मुख्य धारणाओं और विचारधाराओं का टकराव स्पष्ट रूप से देखा गया। एक ओर थे नरमपंथी, जो हालात को गरमाई के बिना अंग्रेजों के साथ सहयोगी नीति के तहत मुद्दों का समाधान चाहते थे। दूसरी ओर थे गरमपंथी, जो सशक्त विरोध और संघर्ष के मार्ग को अपनाकर स्वतंत्रता की ओर कदम बढ़ाना चाहते थे। इस टकराव ने सूरत अधिवेशन को ऐतिहासिक बना दिया।

सूरत अधिवेशन में जहां नरमपंथी पक्ष का नेतृत्व गोपाल कृष्ण गोखले, मदन मोहन मालवीय और फिरोज़शाह मेहता कर रहे थे, वहीं गरमपंथी धारा के प्रधान नेता बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल थे। इस अधिवेशन में गरमपंथियों ने अध्यक्ष पद के लिए तिलक का समर्थन किया, जबकि नरमपंथियों ने उस पद के लिए किसी भी गरमपंथी उम्मीदवार को स्वीकारने से इनकार कर दिया।

इस विवाद का मुख्य कारण तरीका था, जिसकी रूपरेखा कांग्रेस के भविष्‍य और रणनीतियों पर असर डाल रहा था। गरमपंथियों का मानना था कि अब अंग्रेज सरकार को खुलकर चुनौती दी जानी चाहिए और इसी उद्देश्य से उन्होंने तुरन्त मांगों को प्रस्तुत करने का आग्रह किया। वहीं नरमपंथियों का मानना था कि राजनीतिक और सामाजिक सुधारों को शिष्टाचार और संयम के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए, ताकि अंग्रेजी प्रशासन से सहयोग और समर्थन प्राप्त होता रहे।

सूरत अधिवेशन के दौरान यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस के भीतर विभाजन अनिवार्य था। गरमपंथी नेताओं ने अधिवेशन स्थल पर अपना अलग मोर्चा गठित कर लिया, जबकि नरमपंथियों ने कांग्रेस की मुख्य धारा को स्थिर बनाए रखने का प्रयास किया। इस प्रकार, 1907 का सूरत अधिवेशन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर मतभेद के उभरने का प्रतिनिधित्व करता है, जिसने सामूहिक राजनीतिक गतिविधियों और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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विभाजन के परिणाम

सूरत विभाजन के तात्कालिक परिणाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संगठन और नीतियों पर बड़े पैमाने पर प्रभाव डालने वाले थे। विभाजन ने कांग्रेस को दो धड़ों में बांट दिया: एक ओर है नरमपंथी, जिन्होंने धीमी और संवैधानिक तरीकों के माध्यम से स्वराज की प्राप्ति की वकालत की, और दूसरी ओर थे गरमपंथी, जिन्होंने तेज और प्रत्यक्ष कार्यवाही के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त करने की रणनीति को अपनाया। इस विभाजन ने कांग्रेस की एकता और संगठित प्रयासों को चोट पहुंचाई और अंततः स्वतंत्रता संग्राम पर भी असर डाला।

विभाजन के दीर्घकालिक परिणाम भी उल्लेखनीय थे। कांग्रेस की नीतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए; नरमपंथियों के तहत, पार्टी ने ब्रिटिश सरकार के प्रति एक समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाने का प्रयास किया, जबकि गरमपंथियों ने पूरे आंदोलन में अधिक आक्रामकता और संघर्षशीलता की प्रवृत्ति को प्रेरित किया। यह द्वन्द्व तब तक जारी रहा जब तक कि महात्मा गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा नहीं दी।

विभाजन के बाद का राजनीतिक परिदृश्य और भी जटिल हो गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अंदरूनी संघर्षों ने अन्य स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं और संगठनों को महत्वपूर्ण अवसर प्रदान किए। तात्कालिक अवधि में, अधिकाधिक नेता और जनता गरमपंथियों के पक्ष में झुकने लगे, जो सक्रिय और प्रभावी संघर्ष की वकालत कर रहे थे। हालांकि, यह भी सही है कि नरमपंथियों की नीतियाँ भी स्वतंत्रता संघर्ष के लिए आवश्यक थीं, क्योंकि उन्होंने एक व्यापक जनाधार को आकर्षित किया और एक संतुलित दृष्टिकोण प्रदान किया।

समग्र रूप से, सूरत विभाजन ने कांग्रेस में नेतृत्व की एक नई पीढ़ी को जन्म दिया और संगठनात्मक ढांचे को पुनर्परिभाषित किया। इसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा और ऊर्जा दी, जिससे आने वाले वर्षों में कांग्रेस एक मजबूत और प्रभावी राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी।

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प्रमुख नेता और उनकी भूमिका

सूरत विभाजन के समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कई प्रमुख नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं और उनके विचार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बुनियादी स्तंभ बने। महात्मा गांधी, जो उस समय एक उभरते हुए नेता थे, अपने अहिंसात्मक संघर्ष के सिद्धांतों के साथ सामने आए। गांधीजी का मानना था कि स्वराज्य प्राप्ति के लिए अहिंसा और सत्य के मार्ग पर चलना अनिवार्य है। उनके विचार कांग्रेस के भीतर एक नए मार्ग का संकेत देते थे जो भविष्य में राष्ट्रीय आंदोलन का आधार बने।

बाल गंगाधर तिलक, जिन्हें लोकमान्य के नाम से भी जाना जाता है, का विचार था कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, और हम इसे लेकर रहेंगे। तिलक के नेतृत्व में कांग्रेस का गरम दल बना जिसने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कठोर और तत्काल कार्रवाई की मांग की। तिलक का दर्शन था कि बिना संघर्ष के स्वतंत्रता प्राप्ति असंभव है, और उनका प्रभाव कांग्रेस के गरम दल पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता था।

दूसरी ओर, गोपाल कृष्ण गोखले के नेतृत्व में नरम दल का निर्माण हुआ जिसका उद्देश्य ब्रिटिश शासन के साथ मिलकर भारतीय जनता के अधिकारों की रक्षा करना था। गोखले का मानना था कि संवैधानिक विधियों और शांतिपूर्ण संवाद के माध्यम से ही स्वराज्य प्राप्त किया जा सकता है। उनके विचार कांग्रेस के नरम दल की नीति निर्धारण में परिलक्षित होते थे।

इन तीन नेताओं के अलावा लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल जैसे महत्वपूर्ण नेताओं ने भी कांग्रेस के अंदर अपने-अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत किए। लाला लाजपत राय ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जमीनी स्तर पर आंदोलन की अगुवाई की, जबकि बिपिन चंद्र पाल ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक जागरूकता की आवश्यकता पर बल दिया।

सूरत विभाजन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर गरम दल और नरम दल के मध्य स्पष्ट विभाजन को दर्शाया, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भविष्य को गहन रूप से प्रभावित किया। इन महान नेताओं के विविध दृष्टिकोण और कार्यों ने कांग्रेस को एक समावेशी और बहुपक्षीय संगठन बनाया, जो भारतीय स्वतंत्रता की बुनियाद साबित हुआ।

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सूरत विभाजन के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण दस्तावेज़ और उद्धरण

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सूरत विभाजन को समझने के लिए कई महत्वपूर्ण दस्तावेज़ और उद्धरण उपलब्ध हैं, जो इस घटना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उजागर करते हैं। सूरत अधिवेशन में उत्पन्न मतभेद और विरोधाभास का प्रमाण कई समकालीन लेखों, पत्रिकाओं और नेताओं के वक्तव्यों में मिलता है। इन दस्तावेज़ों का महत्वपूर्ण विश्लेषण हमें 1907 के राजनीतिक परिदृश्य को बारीकी से समझने में सहायता करता है।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का कथन: “हमारे मतभेद हमारी आगे की राह को और अधिक स्पष्ट करते हैं,” दर्शाता है कि कांग्रेस के भीतर के मतभेद केवल व्यक्तिगत नहीं थे, बल्कि राजनीतिक मार्गदर्शन के सवाल थे। तिलक और उनके समर्थकों ने आगे बढ़ती नीतियों और तीव्र राष्ट्रवाद को प्राथमिकता दी, जिसके उलट गोपाल कृष्ण गोखले की नरमपंथी नीतियाँ अधिक अहिंसात्मक और संचालित कार्यशैली पर बल देती थीं।

सूरत विभाजन को बेहतर समझने के लिए ‘कांग्रेस के इतिहास के दस्तावेज़’ में प्रकाशित रिपोर्टें महत्त्वपूर्ण हैं। इन रिपोर्टों में नेताओं के विचार और उनके वक्तव्य विस्तार से प्रस्तुत किए गए हैं। उदाहरण के लिए, एक समकालीन रिपोर्ट में स्पष्ट उल्लेख है कि कैसे तिलक के अनुयायियों ने अधिवेशन के दौरान अपनी स्थिति मजबूत बनाने का प्रयास किया, जिससे आक्रोश और विघटन बढ़ा। गोखले के अनुयायियों ने भी अपने वक्तव्यों और कार्रवाईयों से स्पष्ट किया कि वे सुधारों के माध्यम से धीरे-धीरे सत्ता परिवर्तन में विश्वास रखते थे।

इन घटनाओं के संदर्भ में, महात्मा गांधी के ‘हिंद स्वराज’ में दिए गए विचार भी महत्वपूर्ण हैं। गांधीजी ने सूरत विभाजन को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा, जिसने लंबे समय तक कांग्रेस की दिशा-निर्देश का निर्धारण किया। इस प्रकार, तात्कालिकता और सामूहिक भावना की विविधता ने सूरत विभाजन को भारतीय राजनीति के इतिहास में एक अहम स्थान दिया।

इन महत्वपूर्ण दस्तावेज़ों और उद्धरणों का विश्लेषण हमें यह समझने में मदद करता है कि कैसे सूरत विभाजन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीति निर्धारण और दिशा को प्रभावित करता है। कांग्रेस के भीतर के ये मतभेद भविष्य की रणनीतियों और आंदोलनों की नींव बने।

निष्कर्ष

सूरत विभाजन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के मार्ग में गहरा प्रभाव डाला। इस घटना ने न केवल पार्टी के भीतर के मतभेदों को उजागर किया, बल्कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की दिशा को भी नए सिरे से परिभाषित किया। कांग्रेस में गहरे विभाजनों ने पार्टी के क्रांतिकारियों और नरमपंथी धड़ों के बीच पुनर्संयोजन की आवश्यकता को स्पष्ट किया। यह विभाजन भारतीय राजनीति में नेताओं की भूमिका और उनके दृष्टिकोण के प्रति जनता की सजगता को भी जागरूक करने वाला था।

सूरत अधिवेशन में मुख्यतः बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले के विचारधारात्मक अंतर ने मार्ग दिखाया, जहां कांग्रेस को सशक्त नेतृत्व की जरूरत महसूस हुई। लामबंदी ने, उस समय की सामाजिक और राजनीतिक डाइनामिक्स को बेहतर समझने का महत्वपूर्ण मार्ग दिखाया, जिससे जल्द ही स्वराज की मांग अधिक मुखर हो गई। यह विभाजन स्वदेशी आंदोलन, होम रूल लीग और बाद में असहयोग आंदोलन जैसी प्रमुख पहल को भी प्रेरित करने वाला साबित हुआ।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि में सूरत विभाजन की घटना ने असंख्य आंदोलनों और गतिविधियों को प्रज्वलित किया, जिसे महात्मा गांधी के नेतृत्व ने उन्नति और प्रगति के नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। यह भी सत्य है कि इस विभाजन ने कांग्रेस को एक निष्फल मोर्चे के रूप में संगठित होने से रोका और पार्टी को जनता के प्रति अधिक जवाबदेह बनाया। भारतीय राजनीति के विकास के उपरोक्त प्रक्रियाओं में सूरत विभाजन की निर्णायक भूमिका को समझना अत्यंत जरूरी है।

इस प्रकार, सूरत विभाजन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक नए सिरे से पुनर्गठित करने और स्वतंत्रता संग्राम को अधिक सशक्त और गंभीर बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। इस ऐतिहासिक घटना के समापन ने स्वतंत्र भारत के निर्माण में उल्लेखनीय योगदान दिया, और आज भी यह घटना भारतीय राजनीति के शोधकर्ताओं के लिए एक महत्वपूर्ण अध्ययन का विषय बनी हुई है।

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