प्रस्तावना
साइमन आयोग का गठन 1928 में हुआ, जब भारत में राजनीतिक असंतोष और सुधारों की आवश्यकता का गहन आकलन किया गया। यह आयोग, जिसे सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में सात सदस्यीय आयोग के रूप में जाना जाता है, ब्रिटिश शासन के तहत भारतीय समाज की बढ़ती असंतोष और राजनीतिक दबाव का प्रतिक्रिया स्वरूप तैयार किया गया था। उस समय की सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक स्थिति ने यह स्पष्ट किया कि भारत में स्वायत्तता और स्थानीय शासन की मांग में तेजी आ रही थी।
ब्रिटिश सरकार ने यह माना कि इस असंतोष को संभालने के लिए कुछ सुधार आवश्यक हैं। आयोग का उद्देश्य था भारत के शासन प्रणाली का पुनरावलोकन करना और इस संदर्भ में विभिन्न सुझाव प्रस्तुत करना। साइमन आयोग का गठन उन मुद्दों को हल करने के लिए किया गया था, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव बना रहे थे। आयोग ने यह औचित्य रखते हुए काम करना शुरू किया कि भारतीयों को उनके अधिकारों की पहचान दिलाने और लोकतंत्र की ओर बढ़ने के लिए उचित कदम उठाने होंगे।
आयोग के द्वारा अपेक्षित सुधार केवल राजनीतिक संरचना में नहीं, बल्कि भारतीय समाज के सभी क्षेत्रों में व्याप्त सामाजिक असमानता को भी संबोधित करने के लिए आवश्यक थे। इस संदर्भ में, साइमन आयोग ने यह स्वीकार किया कि एक स्थायी और न्यायपूर्ण शासन के लिए जनरल पब्लिक और नागरिकों की भागीदारी महत्वपूर्ण होगी। यही कारण है कि आयोग के गठन ने भारतीय राजनीति में एक नई दिशा की ओर कदम रखा, जहां राजनीतिक परिवर्तन और सुधारों की मांग को खुले तौर पर स्वीकार किया गया।
साइमन आयोग का गठन
सर साइमन कमीशन का गठन 1927 में किया गया, जो भारतीय संविधान के सुधारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस आयोग की अध्यक्षता सर जॉन साइमन ने की, जिसमें कुल सात सदस्य शामिल थे। इसके अन्य सदस्यों में सर एच. एन. ग्रीफिथ, सर एडविन सैमुअल, सर जॉर्ज टल्बोट, और सार्जेंट वाइट, सार्जेंट, लॉर्ड अस्क्विथ और श्री हड़सन शामिल थे। इन सदस्यों का चयन उनकी अद्वितीय विशेषज्ञता और प्रशासनिक अनुभव के आधार पर किया गया था, ताकि वे भारतीय राजनीतिक स्थिति की समीक्षा कर सकें।
सर साइमन, एक प्रमुख ब्रिटिश न्यायाधीश और राजनीतिक विचारक थे, और उन्होंने अपनी अध्यक्षता में आयोग को कार्य करने हेतु एक स्पष्ट दिशा प्रदान की। आयोग की मुख्य भूमिका भारतीय संविधान के लिए एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करना था, जिसमें वह सुधारात्मक उपाय सुझाए जा सकें जो भारतीय राजनीति को सुधारने में मदद कर सकें। आयोग का गठन 8 नवंबर 1927 को हुआ, और इसके गठन के उद्देश्यों में भारतीय राजनीतिक स्थिति का आंकलन करना और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए भारतीयों की आवश्यकताओं को समझना शामिल था।
इन सदस्यों की पृष्ठभूमि विभिन्न क्षेत्रों में रही थी, जिसमें कानून, राजनीति और प्रशासन शामिल थे। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि आयोग में विशेषज्ञता का एक समृद्ध मिश्रण हो, जो भारतीय समस्याओं का सही रूप से आकलन कर सके। आयोग की अन्य प्रमुख भूमिका में यह भी शामिल था कि वह भारतीयों की राजनीतिक आकांक्षाओं को मुखरित करें और ब्रिटिश सरकार को इस पर सामंजस्य बनाने के लिए प्रेरित करें। इसके अंतर्गत यह अपेक्षित था कि आयोग की रिपोर्ट भविष्य में भारतीय संदर्भ में संविधान संशोधन के लिए एक आधार तैयार करे।
आयोग का उद्देश्य
सर साइमन की अध्यक्षता में गठित 7 सदस्यीय साइमन आयोग का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीतिक और संवैधानिक ढांचे में सुधार लाना था। इस आयोग का गठन 1927 में हुआ था, जब ब्रिटिश सरकार ने भारत में राजनीतिक स्थिरता के लिए आवश्यक सुधारों को लागू करने की आवश्यकता महसूस की। आयोग ने विभिन्न मुद्दों का विश्लेषण किया, जिसमें राजनीतिक सुधार, संवैधानिक परिवर्तन, और भारत की स्वशासन की दिशा में निर्णय लेने की प्रक्रिया शामिल थी।
साइमन आयोग ने भारतीय राजनीति को अंग्रेजी प्रणाली के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया। आयोग ने यह महसूस किया कि भारत के लिए एक पारदर्शी और उत्तरदायी शासन प्रणाली की आवश्यकता है, जिससे स्थानीय लोगों को निर्णय लेने के मामलों में अधिक प्रतिनिधित्व मिल सके। इस दिशा में आयोग ने राजनीतिक ढांचे में सुधार के लिए कई सिफारिशें प्रस्तुत कीं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय, यह आवश्यक था कि भारतीयों के लिए सत्ता में भागीदारी को बढ़ावा दिया जाए, जो साइमन आयोग का एक प्रमुख उद्देश्य था। आयोग ने यह स्पष्ट किया कि स्वशासन केवल राजनीतिक कार्रवाई नहीं बल्कि इसके पीछे एक सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन भी आवश्यक है। इसके तहत, संविधान में आवश्यक संशोधन की आवश्यकता पर जोर दिया गया।
हालांकि, इस आयोग का उद्देश्य एक अधिक समावेशी और प्रतिनिधिक राजनीतिक ढांचे को स्थापित करना था, लेकिन इसकी सिफारिशें भारतीय जनमानस द्वारा व्यापक रूप से अस्वीकृत कर दी गई थीं। इस अस्वीकृति ने भारतीय राजनीतिक पार्टियों को एकजुट होने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ अधिक संगठित ढंग से संघर्ष करने की प्रेरणा दी। आयोग के कार्य ने न केवल राजनीतिक सुधारों की आवश्यकता को उजागर किया, बल्कि यह भी दिखाया कि भारत में स्वशासन प्राप्त करने की आवश्यकता किस प्रकार से गहराई में गई थी।
साइमन आयोग की सिफारिशें
साइमन आयोग ने 1928 में भारत में राजनीतिक सुधारों के संदर्भ में कई महत्वपूर्ण सिफारिशें प्रस्तुत की। इन सिफारिशों का उद्देश्य ब्रिटिश शासन के तहत भारतीय राजनीतिक प्रणाली को और प्रभावी बनाना था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह पुष्टि की कि भारत के राजनीतिक ढांचे में विविधता और जटिलता को ध्यान में रखते हुए सुधार आवश्यक हैं।
आयोग की प्रमुख सिफारिशों में से एक, प्रांतीय स्वायत्तता की बढ़ती हुई मांग थी। जबकि पहले के प्रशासनिक ढांचे में केवल केंद्र की शक्ति पर ध्यान दिया जाता था, साइमन आयोग ने भारत के विभिन्न प्रांतों को अधिक स्वायत्तता देने का सुझाव दिया। यह सिफारिश भारतीयों की राजनीतिक आकांक्षाओं का सम्मान करती है और ब्रिटिश शासन के प्रति उनकी बढ़ती असंतोष को संबोधित करने का प्रयास करती है।
इसके अतिरिक्त, साइमन आयोग ने भारतीय नागरिकों को संवैधानिक अधिकार देने की आवश्यकता पर बल दिया। सुधारों के तहत, भारतीयों को अधिक प्रतिनिधित्व देने की सिफारिश की गई थी, ताकि उन्हें अपने राजनीतिक मुद्दों को उठाने और समाधान करने का अवसर मिल सके। आयोग की सिफारिशों में से एक टिप्पणी यह थी कि भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रवर्तित करने के लिए कदम उठाने की आवश्यकता है।
हालांकि, साइमन आयोग की सिफारिशें, जिस पर भारतीय राजनीतिक दलों और जन सामान्य में तीव्र विवाद हुआ, ने ब्रिटिश सरकार के प्रति बढ़ती हुई नकारात्मकता को जन्म दिया। कई भारतीय राजनैतिक नेताओं ने आयोग को पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया, यह कहते हुए कि यह आयोग एक गैर-भारतीय सम्बन्धित दल था। आयोग की सिफारिशों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
समाज में प्रतिक्रिया
सर साइमन की अध्यक्षता में गठित 7 सदस्यीय साइमन आयोग के गठन पर समाज के विभिन्न वर्गों से मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ देखने को मिलीं। कांग्रेस पार्टी ने आयोग की सिफारिशों को लेकर गहरी असहमति व्यक्त की। उनका कहना था कि आयोग का गठन भारतीय समाज की विविधता और जरूरतों का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता। इसके सदस्यों में कोई भी भारतीय शामिल नहीं था, जिससे यह सवाल उठता है कि ऐसा आयोग भारतीय नागरिकों के अधिकारों और आवश्यकताओं को कैसे समझ सकता है। कांग्रेस के नेताओं ने इसे एक साम्राज्यवादी दृष्टिकोण के तहत देखा और इसे भारतीय जनता की आकांक्षाओं के खिलाफ बताया।
इसके विपरीत, मुस्लिम लीग ने आयोग की रिपोर्ट को नकारते हुए इसे सही ठहराने का प्रयास किया, लेकिन जब उन्हें अपने विशेष प्राथमिकताओं के खिलाफ सिफारिशें मिलीं, तो वे भी उसी तेवर में प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगे। इसने इस क्षेत्र में राजनीतिक तनाव को और बढ़ा दिया। अन्य राजनीतिक संगठनों, जैसे कि अंबेडकराइट पार्टी और कुछ राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने भी आयोग की कार्यप्रणाली और सिफारिशों पर प्रश्न उठाए। उन्होंने इसके गठन को भारतीय समाज के बहुलवाद का अपमान मानते हुए आयोग को एकतरफा बताया।
इस प्रकार, समाज के विभिन्न तबकों में अपनी-अपनी स्वार्थी दृष्टिकोण के अनुसार राय व्यक्त की गई। कुछ ने आयोग को सुधारात्मक कदम मानते हुए उसका स्वागत किया, जबकि अधिकांश ने इसे अपने अधिकारों का हनन बताते हुए विरोध किया। इन प्रतिक्रियाओं ने पोलीटिकल दृश्य को और पेचीदा बना दिया। समाज में इस प्रकार की प्रतिक्रिया ने यह सुनिश्चित किया कि साइमन आयोग केवल एक राजनीतिक व्याख्या का माध्यम बनकर नहीं रह गया, बल्कि यह भारतीय समाज में एक गहन संवाद और विचार-विमर्श का माध्यम भी बना।
साइमन आयोग का राजनीतिक प्रभाव
साइमन आयोग, जिसे सर साइमन के नेतृत्व में 1928 में गठित किया गया, ने भारतीय राजनीति पर कुछ महत्वपूर्ण प्रभाव डाले हैं। आयोग का गठन भारतीय स्वतंत्रता के लिए चल रहे आंदोलन और स्थानीय राजनैतिक परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए किया गया था। इसके उद्देश्य में प्रमुख था ब्रिटिश सरकार के प्रति भारतीयों के संवैधानिक आग्रहों का मूल्यांकन करना। यद्यपि आयोग में भारतीय प्रतिनिधित्व की कमी थी, इसने भारतीय राजनीति में नए दृष्टिकोणों और विधायी आवश्यकताओं को जन्म दिया।
साइमन आयोग की सिफारिशों ने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में व्यापक बहस और विवाद का उपोत्पाद बना। विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस आयोग के निर्णयों का विरोध करते हुए एकजुटता दिखाई। विशेष रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य स्थानीय राजनीतिक समूहों ने इसे भारतीय भावना के प्रति अपमानजनक माना। इसने भारतीय समाज को एकजुट किया और नई राजनीतिक रणनीतियों को अपनाने की प्रेरणा दी। इससे धीरे-धीरे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में और ऊर्जा का संचार हुआ।
आयोग ने तथाकथित ‘हंटिंगटन-प्रश्न’ का सामना करते हुए, भारतीय प्रतिनिधित्व और स्वशासन के लिए मांगों को पुनर्जीवित किया। इसके तहत, राजनीतिक नेताओं ने एक स्वायत्त भारतीय संविधान के निर्माण की आवश्यकता को महसूस किया। इसके आलोक में, नव निर्मित राजनीतिक सिद्धांतों ने भारतीय राजनीतिक विमर्श को समृद्ध किया। चूंकि यह आयोग अधिनियमों के संदर्भ में एक ठोस भाषा में नीति निर्धारण के लिए प्रेरित कर रहा था, ऐसे में भारतीय राजनीतिक आकांक्षाओं की परिधि को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया।
इस प्रकार, साइमन आयोग का गठन न केवल तत्कालीन राजनीतिक संघर्षों का परिणाम था, बल्कि यह भारतीय राजनीति में सामूहिक अपील और एकता की भावना को भी दर्शाता है, जिसने स्वतंत्रता की दिशा में एक दृढ़ कदम उठाया।
आयोग और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
सर साइमन की अध्यक्षता में गठित 7 सदस्यीय साइमन आयोग ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह आयोग 1928 में बना था, जिसका उद्देश्य भारत के राजनीतिक सुधारों पर अनुमान लगाना और सिफारिशें देना था। यद्यपि आयोग का गठन ब्रिटिश सरकार द्वारा किया गया था, यह भारतीयों के लिए अत्यधिक असन्तोष का कारण बना। इसके सभी सदस्य ब्रिटिश थे, और भारतीय प्रतिनिधित्व की कमी ने स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं में एक व्यापक असहमति पैदा की।
साइमन आयोग की सिफारिशों ने कई मुद्दों को जन्म दिया जिनसे स्वतंत्रता संग्राम में उथल-पुथल मची। इसके प्रतिरोध में भारतीय नेताओं ने “साइमन गो बैक” का नारा उठाया, जिससे भारतीयों के अधिकारों के प्रति उनकी निराशा का स्पष्ट संकेत मिला। असल में, साइमन आयोग ने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों की भावनाओं को नज़रअंदाज़ कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न राजनीतिक दलों ने एकजुट होकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ विरोध करना शुरू किया।
स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में साइमन आयोग के गठन और सिफारिशें इस बात को दर्शाती हैं कि अंग्रेज़ों द्वारा पदाधिकारियों के बिना शासन करना कितना अनुचित था। इसके परिणामस्वरूप महात्मा गांधी और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने आंदोलनों को और अधिक सशक्त किया। श्रमिकों, किसानों और विद्यार्थियों की आवाज़ें उठने लगीं, जिससे स्वतंत्रता संग्राम में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ। इस तरह, साइमन आयोग की सीमाएँ स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बन गईं। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो आयोग का गठन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नए मोड़ पर खड़ा करने के लिए प्रेरक सिद्ध हुआ।
आयोग की आलोचना
साइमन आयोग, जिसकी अध्यक्षता सर साइमन ने की, का गठन वर्ष 1928 में किया गया था, और यह आयोग विशेष रूप से भारतीय राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मुद्दों को ध्यान में रखते हुए स्थापित किया गया। हालांकि, इस आयोग की व्यापक आलोचना के कई प्रमुख पहलू सामने आए हैं। पहला, इसकीComposition का मुद्दा है। साइमन आयोग में कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था, जिससे यह धारणा बनी कि आयोग भारतीय जनसामान्य की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं से पूरी तरह कट गया है। इसके सदस्यों का चयन ब्रिटिश सरकार द्वारा किया गया था, जिससे स्थानीय जनसंख्या की अपेक्षाओं का ध्यान नहीं रखा गया। इस स्थिति ने भारतीय जनता के बीच गहरी असंतोष का कारण बना, जो इसे ‘निष्प्रभावी’ और ‘भारतीय जनसामान्य से अलग’ मानने लगी।
दूसरा, इस आयोग की प्रस्तावित सुधार योजना को भी आलोचना का सामना करना पड़ा। Critics का मानना था कि यह योजना भारतीय राजनीति और समाज के वास्तविक परिदृश्य को प्रतिबिंबित करने में असफल रही। इसके अनुशंसा किए गए सुझावों को लागू करना भारतीय समाज के जटिल ढांचे के लिए अनुकूल नहीं माना गया। इसके अलावा, साइमन आयोग द्वारा लिए गए निर्णयों ने भारत की बुनियादी राजनीतिक समस्या, जैसे कि क्षेत्रीय असमानताएं और सामाजिक विभाजन, को नजरअंदाज किया।
इसके अतिरिक्त, यह भी देखा गया कि आयोग का कार्यभार बड़ा ध्यान आकर्षित करने में असमर्थ रहा। कई भारतीय नेता, जैसे महात्मा गांधी और पंडित नेहरू, ने इसकी सख्त आलोचना की। इस विरोध के कारण साइमन आयोग की प्रासंगिकता और प्रभावशीलता दोनों प्रश्नों के घेरे में आ गई। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि साइमन आयोग की रचना और इसकी कार्यप्रणाली ने भारतीय जनसंख्या में गंभीर अविश्वास पैदा किया, जिससे इसकी निष्क्रियता और असफलता को साबित करने वाले कई तर्क उभरे।
निष्कर्ष
साइमन आयोग, जिसका गठन सर साइमन की अध्यक्षता में किया गया, भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। आयोग ने भारतीय राजनीतिक घटनाक्रम में एक नई दिशा दी और ब्रिटिश प्रशासन की नीतियों की आलोचना की। इसके सिफारिशों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को गति प्रदान की, क्योंकि कई प्रगतिशील विचार और सिफारिशें यहां प्रस्तुत की गईं। आयोग ने भारतीयों के प्रति ब्रिटिश राज के दृष्टिकोण को भी एक निश्चित रूप से प्रभावित किया।
साइमन आयोग के द्वारा सुझाए गए सुधारों मेंों स्वशासन की आवश्यकता को प्रमुखता दी गई। इसने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एक नए विचार के तहत प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाया। इसमें विभिन्न समुदायों के लिए राजनीतिक हिस्सेदारी की बात की गई थी, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय के राजनैतिक मामलों में हर एक समूह की आवाज को सुना जाना चाहिए। आयोग ने इस संदर्भ में सुस्थापित सिद्धांतों और भारत के बहुसांस्कृतिक धरोहर का सम्मान करने की आवश्यकता पर जोर दिया।
इस आयोग का प्रभाव केवल समकालीन समय तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसके द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देश आज भी भारतीय राजनीति में प्रासंगिक हैं। आयोग की सिफारिशों ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम को मजबूत किया, बल्कि भारतीय राजनीतिक धरातल पर संवाद और सहमति की भावना को भी स्थायी रूप दिया। साइमन आयोग का योगदान आज के भारत की राजनीतिक संरचना और लोकतंत्र के विकास की समझ में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि आयोग ने अपने समय में भारतीय समाज के मानसिकता के बदलने में अहम भूमिका निभाई।