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दादाभाई नौरोजी: स्वतंत्रता संग्राम के महान नायक

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प्रस्तावना

दादाभाई नौरोजी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण नेताओं में से एक थे। उनका जन्म 4 सितंबर 1825 को बॉम्बे (अब मुंबई) में हुआ था। उनका परिवार पारसी समुदाय से संबंध रखता था और उनके पिता का नाम नौरोजी पलांजी डोरूजी था। उनका परिवार आर्थिक दृष्टि से साधारण था, परंतु शिक्षा का महत्व उनके माता-पिता अच्छी तरह समझते थे।

नौरोजी का बौद्धिक विकास उनके प्रारंभिक दिनों में ही स्पष्ट हो गया था। उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा एलफिंस्टन इंस्टीट्यूट से की, जहां वह अपनी बुद्धिमता और प्रेरणा के लिए प्रसिद्ध हुए। अपनी उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने एलफिंस्टन कॉलेज में दाखिला लिया और वहां से गणित और प्राकृतिक विज्ञान में उत्कृष्टता प्राप्त की।

शैक्षिक दृष्टि से अत्यधिक प्रगतिशील होने के कारण, नौरोजी शिक्षण क्षेत्र में भी अपनी सेवा देना चाहते थे। इसलिए, उन्होंने एलफिंस्टन कॉलेज में गणित के प्रोफेसर के रूप में काम करना शुरू किया, जिससे उन्हें युवा छात्रों के बीच लोकप्रियता और सम्मान प्राप्त हुआ।

ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय समाज की दयनीय स्थिति ने दादाभाई नौरोजी को अहिंसा और सामाजिक सुधारों के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने ब्रिटिश शासन के आर्थिक और सामाजिक शोषण को महसूस किया और इसे दूर करने के लिए राजनीति में सक्रिय रूप से हिस्सा लेने का निर्णय लिया। नौरोजी ने भारतीयों की दयनीय स्थिति को इंग्लैंड में जाकर ब्रिटिश सांसदों और जनता के समक्ष रखा।

दादाभाई नौरोजी का जीवन संघर्ष और समर्पण की कहानी है। उन्होंने अपने जीवन को स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए समर्पित कर दिया। उनके अनथक प्रयासों और सामाजिक सुधारों के कारण वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेताओं में गिने जाते हैं।

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प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितंबर 1825 को बंबई (अब मुंबई) में हुआ था। उनका पूरा नाम दादाभाई नौरोजी पारसी था और वे एक पारसी परिवार से थे। बचपन में ही उनके पिता का देहांत हो गया, जिससे उनकी माँ ने कठिन परिस्थितियों में भी उनका पालन-पोषण किया। उनके बचपन के ये संघर्ष ही शायद उनके जीवन में आगे आने वाली मुश्किलों का सामना करने के लिए उन्हें सिद्ध कर गए।

नौरोजी की प्रारंभिक शिक्षा बंबई के एडविन्सन स्कूल में हुई, जहाँ उन्होंने गणित और विज्ञान में उत्कृष्टता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने एल्फिंस्टन इंस्टीट्यूट (जो बाद में कॉलेज बना) में दाखिला लिया। वहां भी उनकी वितराषा, निष्ठा और प्रतिभा ने उन्हें अपने सहपाठियों में विशेष स्थान दिलाया। एल्फिंस्टन कॉलेज से उन्होंने 1845 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की, जहाँ उन्हें ‘फर्स्ट एंगलो’ की उपाधि से सम्मानित किया गया।

दादाभाई नौरोजी की शिक्षा केवल अकादमिक नहीं थी; उन्होंने बंबई के सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ थी और उन्होंने ब्रिटिश शासन के अधीन रहते हुए अंग्रेजी साहित्य और पाश्चात्य विचारधारा को समझा। यह उनकी सोच में व्यापकता और समावेशिता लेकर आया, जिसने आगे चलकर उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेताओं में से एक बना दिया।

उनकी शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह था कि उन्होंने अपने ज्ञान का प्रयोग समाज की सेवा में किया। उनका विश्वास था कि शिक्षा केवल व्यक्तिगत उन्नति के लिए नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह समाज के प्रति जिम्मेदारी को भी बढ़ाती है। दादाभाई नौरोजी ने अपने जीवनकाल में इस विचारधारा को निरंतर अपने कार्यों में प्रतिबिंबित किया, जो उन्हें एक महान समाजसेवी और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रेरणास्त्रोत के रूप में प्रतिष्ठित करता है।

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राजनैतिक जीवन की शुरुआत

दादाभाई नौरोजी के राजनैतिक जीवन की शुरुआत की बात करें तो उनकी तत्परता और समर्पण का उल्लेख करना अत्यंत आवश्यक है। नौरोजी ने अपने प्रारंभिक राजनीतिक प्रयास अपने राष्ट्र और अपने देशवासियों के हितों के संरक्षण के लिए समर्पित किए। वे न केवल समाज सुधारक थे, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महान नायक भी थे।

भारत में ब्रिटिश शासन के अधीन भारतीयों की हालत देखते हुए दादाभाई नौरोजी ने 1850 के दशक में सक्रिय रूप से राजनीति में प्रवेश किया। उन्होंने भारतीयों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा, आर्थिक सुधार, सामाजिक न्याय और शैक्षिक प्रगति को बढ़ावा देने के लिए अनेक कार्य किए। नौरोजी ने ‘भारत का धनादेश’ नामक आर्थिक सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि ब्रिटिश भारत से संसाधनों का शोषण कर रहे थे।

नौरोजी का योगदान सिर्फ राजनीतिक धरातल पर ही नहीं, बल्कि समाज सुधार और सामाजिक कार्यों में भी महत्वपूर्ण रहा। वे ‘पारसी सुधार सभा’ के अध्यक्ष बने और पारसी दौर में महिला शिक्षा और अधिकारों के प्रचार-प्रसार के लिए सराहनीय प्रयास किए। इसके अलावा, वे भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और रुढ़िवादी परंपराओं के खिलाफ संघर्ष में भी अग्रणी रहे।

दादाभाई नौरोजी ने 1867 में लंदन एशियन सोसायटी ऑफ इंग्लैंड की स्थापना की, जिन्होंने ब्रिटेन में रहकर भी भारतीयों के हितों की रक्षा के लिए आवाज उठाई। इससे भारतीयों के प्रति ब्रिटिश दर्शकों की सोच में भी परिवर्तन आया और भारतीय समाज को एक नई पहचान मिली।

राजनैतिक जीवन के प्रारंभिक दौर में ही नौरोजी का प्रभाव इतना बढ़ गया कि वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से एक बने और 1886 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने। उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा और दशा दोनों को नई ऊंचाईयां दीं।

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दादाभाई नौरोजी का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में व्यापक और महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के समय उन्होंने एक प्रमुख भूमिका निभाई। उनके विचारशील नेतृत्व और अटल विश्वास ने कांग्रेस को एक सशक्त और प्रभावी संगठन बनाने में मदद की। वे कांग्रेस की प्राथमिकताओं को निर्धारित करने और स्वदेशी आंदोलन को बल देने में निरंतर सक्रिय रहे। उनके द्वारा दिए गए प्रेरणादायक भाषणों ने ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत भारतीय जनता में जोश और उत्साह का संचार किया।

दादाभाई नौरोजी तीन बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे – 1886, 1893, और 1906 में। अपने अध्यक्षता काल के दौरान, उन्होंने शिक्षा, रोजगार और आर्थिक सुधारों पर जोर दिया। उनके द्वारा उच्चारित प्रस्तावों और प्रस्तावनाओं ने कांग्रेस को ब्रिटिश शासकों के सामने भारतीय जनमानस की मांगों को सुदृढ़ता से रखने का मार्ग प्रशस्त किया। दादाभाई ने स्वतंत्रता संग्राम में आर्थिक शोषण और ब्रिटिश शासन द्वारा भारतीय संसाधनों के दोहन की बात को प्रमुखता से उठाया, जिससे स्वराज की मांग को और भी बल मिला।

दादाभाई नौरोजी के साक्षर विचार और तर्कशील आँकलनों ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक गंभीर और विश्वसनीय चेहरा बनाया। उनके प्रसिद्ध “अंतरसंधि भाषण” ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय जनता को न केवल स्वतंत्रता की आवश्यकता है, बल्कि आर्थिक न्याय और सामाजिक समानता की भी मांग है। उनके द्वारा प्रस्तुत “दादा ध्यान” का आदर्श कांग्रेस के सिद्धांतों और लक्ष्यों को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण साबित हुआ।

दादाभाई नौरोजी का योगदान केवल कांग्रेस तक ही सीमित नहीं था; वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आदर्शवादी और व्यावहारिक मार्गदर्शक थे। उनके विचार और कार्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव को मजबूत बनाने में अपरिहार्य थे। उनकी अध्यक्षता के काल में जिन मुद्दों को उठाया गया, वे आज भी भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। दादाभाई नौरोजी की दृष्टि और नेतृत्व ने कांग्रेस में एक नई जीवंतता और ऊर्जा का संचार किया, जो स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक अमूल्य योगदान है।

ब्रिटिश संसद में उनकी भूमिका

दादाभाई नौरोजी पहले भारतीय थे जो 1892 में ब्रिटिश संसद के सदस्य बने, एक उपलब्धि जो तत्कालीन राजनीतिक माहौल में अत्यान्त महत्त्वपूर्ण थी। उनके संसद में निर्वाचन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नयी दिशा प्रदान की। ब्रिटिश संसद में प्रवेश करने के लिए नौरोजी को अनेक कठिनाइयों और संघर्षों का सामना करना पड़ा। उनके चुनाव के दौरान “ब्लैकमैन” तथा “पगड़ी वाला उम्मीदवार” जैसे अपमानजनक शब्दों का सामना करना पड़ा, फिर भी उनकी दृढ़ता ने उन्हें सफलता दिलाई।

संसद में नौरोजी ने भारतीयों के अधिकारों के लिए जोरदार आवाज उठाई। उन्होंने ब्रिटिश प्रशासन द्वारा भारतीय जनता के साथ अन्याय और शोषण के खिलाफ संघर्ष किया। नौरोजी ने अपनी पुस्तक “पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया” के माध्यम से भारतीयों की दयनीय स्थिति और ब्रिटिश शासन की नीतियों का विश्लेषण किया। संसद में उन्होंने “ड्रेन थ्योरी” को प्रस्तुत किया, जिससे यह सिद्ध किया कि कैसे ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारतीय संपत्ति ब्रिटेन में स्थानांतरित की जा रही थी।

दादाभाई ने भारतीयों के हितों को ध्यान में रखते हुए कई नीतियाँ प्रस्तावित की। उन्होंने भारतीयों की शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक विकास के मुद्दों को उठाया और ब्रिटिश सरकार को इन विषयों पर कार्य करने के लिए प्रेरित किया। उनके द्वारा प्रस्तावित नीति “स्वदेशी आंदोलन” ने आने वाली स्वतंत्रता संग्राम की पीढ़ियों को एक नई प्रेरणा दी।

दादाभाई नौरोजी का संसद में होना सिर्फ एक राजनीतिक सफलता नहीं था, बल्कि ये एक प्रतीक था भारतीय जनता के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों की पहचान और उनके संरक्षक का। उनकी मेहनत और संघर्ष ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा और ऊर्जा प्रदान की, जिसकी गूंज ब्रिटिश संसद के गलियारों से भारतीय स्वतंत्रता की ओर मार्ग प्रशस्त करती है।

दादाभाई नौरोजी की आर्थिक विचारधारा

दादाभाई नौरोजी का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उच्च आदर के साथ लिया जाता है, विशेष रूप से उनकी आर्थिक विचारधारा के कारण। नौरोजी का मानना था कि ब्रिटिश शासन भारतीय अर्थव्यवस्था को निरंतर दमन कर रहा है और इसके लिए उन्होंने ‘पर्वतीय दरिद्रता’ (Drain Theory) का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत के अनुसार, ब्रिटिश शासन के दौरान भारत से उसकी संपत्ति ब्रिटेन की ओर बहाकर भारतीयों को गरीबी की स्थिति में धकेला जा रहा था।

नौरोजी ने तर्क दिया कि भारत की आर्थिक स्थिति ब्रिटिश नीतियों के कारण लगातार बिगड़ रही थी। ब्रिटिश अधिकारी भारत से प्राकृतिक संसाधनों, कच्चे माल और धन का दोहन कर विदेश भेज रहे थे, जबकि देश में गरीबी और बेरोजगारी बढ़ रही थी। इसके अतिरिक्त, भारतीयों के लिए उच्च पद और अधिकारियों के लिए जगह नहीं थी, जिससे अंग्रेजों का आधिपत्य और मजबूत हो गया था।

दादाभाई नौरोजी के आर्थिक विचारधारा का विशेष प्रभाव उस समय की भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ा। उन्होंने भारत के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए नई राहें सुझाईं। नौरोजी ने ब्रिटिश आर्थिक नीतियों के खिलाफ जोरदार आवाज उठाई और भारतीय धन के निकास की समस्या को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी उठाया। उनके लेख और भाषणों ने भारतीयों में राष्ट्रवादी जागरूकता और आत्मनिर्भरता का भाव उत्पन्न किया।

उनके आर्थिक विचारों ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम में एक नई दिशा दी, बल्कि उन्होंने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भारतीय दृष्टिकोण को स्पष्ट और सशक्त रूप से प्रस्तुत किया। दादाभाई नौरोजी के सिद्धांतों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेताओं को भी प्रेरित किया और उनकी नीतियों के माध्यम से भारत को एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

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समाज सुधारक के रूप में भूमिका

दादाभाई नौरोजी न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी थे, बल्कि वे समाज सुधार के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण हस्ती थे। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों, शिक्षा और समाजिक समानता के लिए अनूठे प्रयास किए। उनके प्रयासों ने भारत में समाजिक चेतना को जागृत किया और प्रगति की दिशा में नई राहें खोलीं।

समाज सुधार के क्षेत्र में दादाभाई नौरोजी की प्रमुख पहल महिलाओं के अधिकारों की रक्षा को लेकर थी। उन्होंने जोर देकर कहा कि महिलाओं की शिक्षा और सशक्तिकरण समाज की प्रगति में अहम भूमिका निभाता है। वह मानते थे कि जब तक महिलाओं को समान अधिकार और अवसर नहीं मिलते, समाज का समग्र विकास संभव नहीं है। इसके तहत उन्होंने कई संगठनों और संस्थाओं की स्थापना की जो महिलाओं की शिक्षा और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए काम करती थीं।

शिक्षा के क्षेत्र में भी नौरोजी ने सराहनीय योगदान दिया। उन्हें मालूम था कि शिक्षा ही वह माध्यम है जो व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाता है और समाज को उन्नति की दिशा में प्रेरित करता है। दादाभाई नौरोजी ने शिक्षा के व्यापक प्रसार के लिए कई महत्वपूर्ण अभियानों को प्रारंभ किया और उनके प्रयासों से हजारों बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला।

इसके अतिरिक्त, समाजिक समानता में भी नौरोजी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने जाति, धर्म और वर्ग भेदभाव के खिलाफ जोरदार स्वर उठाया और समाजिक समानता के लिए संघर्ष किया। उनके विचार थे कि एक समतामूलक समाज ही सच्चे अर्थों में स्वतंत्र हो सकता है। उनके समाजिक सुधार कार्यक्रमों ने भारत में समाजिक परिवर्तन की लहर पैदा की और अद्वितीय प्रेरणा दी।

दादाभाई नौरोजी के इन समाज सुधार प्रयासों और उनके योगदान ने उन्हें एक महान समाज सुधारक के रूप में स्थापित किया और समाज के विकास में उनकी अहम भूमिका को सिद्ध किया।

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निधन और विरासत

दादाभाई नौरोजी के अंतिम दिनों का समय उनके जीवन के संघर्ष और उपलब्धियों का एक संक्षेपण था। वह विशेष रूप से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण नायक थे। 30 जून 1917 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी विरासत और उनके सिद्धांत आज भी जीवित हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के लिए उनका योगदान अप्रतिम था और उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं।

दादाभाई नौरोजी ने अपने जीवन में भारतीय समाज और राजनीति को एक नई दिशा देने का कार्य किया। उन्हें भारतीय राजनीति में “ग्रैंड ओल्ड मैन ऑफ इंडिया” के नाम से भी जाना जाता है। नौरोजी द्वारा चलाया गया ड्रेन थ्योरी का सिद्धांत, जिसमें उन्होंने यह बताया था कि कैसे ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत की धनद्रव्य निकासी हो रही थी, एक महत्वपूर्ण आर्थिक विचारधारा के रूप में माना जाता है।

उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह था कि उन्होंने भारतीय समाज में शिक्षा और स्वराज के महत्व को समझाया। उनके विचार और संकल्पना का प्रभाव उस समय के युवाओं पर व्यापक रूप से पड़ा। उन्होंने भारतीय नैशनल कांग्रेस के तीन बार अध्यक्षता भी की और 1892 में ब्रिटिश संसद के सदस्य भी बने। यह उनके दृढ़ संकल्प और प्रेरणा का संकेत था कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम एक वैश्विक मंच पर मान्यता प्राप्त कर रहा था।

आधुनिक भारतीय समाज दादाभाई नौरोजी के योगदान का आदर करता है। उनकी नीतियों और सोच ने स्वराज आंदोलन को एक नई ऊर्जा दी और भारतीयों में राष्ट्रीय स्वाभिमान का संचार किया। उनकी याद में अनेकों संस्थाओं और संगठनों ने अपने अनुसन्धान और कार्यों को उनके नाम पर समर्पित किया है। दादाभाई नौरोजी न केवल स्वतंत्रता संग्राम के महान नायक थे, बल्कि वे आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक भी माने जाते हैं।

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