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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पूर्व सम्मेलन

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भाषा और उद्देश्य

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पूर्व सम्मेलनों में, इसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया था। कांग्रेस का प्रमुख लक्ष्य भारतीय लोगों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों की रक्षा करना था। अंग्रेजों के अधीन भारतीय नागरिकों की शक्ति को सीमित किया गया था, और इस असमानता के खिलाफ एकजुट होने की आवश्यकता महसूस की गई। इसलिए, कांग्रेस का गठन एक महत्वपूर्ण कदम था, ताकि भारतीय जनता अपनी आवाज को उठाने और अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए संगठित हो सके।

इस दौरान उपयोग की गई भाषा का महत्व भी समझना आवश्यक है। कांग्रेस के प्रारंभिक आयोजनों में स्थानीय भाषाओं का उपयोग किया गया, जिससे आम जनता को अधिकतम संख्या में जोड़ा जा सके। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि हर वर्ग के लोग, चाहे वह शिक्षित हो या सरल, कांग्रेस और उसके उद्देश्यों को समझ सकें। यह मूलभूत सिद्धांत था कि सभी भारतीय नागरिकों को उनके अधिकारों के लिए एकजुट होना चाहिए, और इसी कारण से व्यापक जागरूकता और संवाद स्थापित करने के लिए स्थानीय भाषाओं को प्राथमिकता दी गई।

कांग्रेस के लक्ष्यों में स्वतंत्रता, समानता, और न्याय की परिकल्पना शामिल थी। यह सिर्फ एक राजनीतिक संगठन नहीं था, बल्कि सामाजिक और आर्थिक सुधारों का भी वाहक बना। यह स्पष्ट था कि कांग्रेस का उद्देश्य केवल ब्रिटिश राज के खिलाफ नहीं, बल्कि भारतीय समाज के भीतर भी सुधार लाना था। इस प्रकार, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन न केवल एक राजनीतिक मोर्चा था, बल्कि यह भारतीय लोगों की सामाजिक चेतना को जागरूक करने का प्रयास भी था। इस संपूर्ण आंदोलन का केंद्र बिंदु भारतीय नागरिकों का सामूहिक संघर्ष और उनकी अधिकारों की रक्षा करना था।

भारतीय राजनीति का माहौल

19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय राजनीति का माहौल अत्यंत जटिल और चुनौतीपूर्ण था। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभाव में, भारतीय राष्ट्रवाद की भावना धीरे-धीरे सजग हो रही थी। इस समय भारत में कुछ ऐसे प्रमुख मुद्दे उभरे, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी। सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों के प्रति भेदभाव और शोषण। इस भेदभाव के कारण धारणा बनी कि भारतीयों के अधिकारों का लगातार उल्लंघन किया जा रहा है।

इसके अलावा, सामाजिक मुद्दों की एक श्रृंखला भी सक्रिय रूप से सामने आई। जातिवाद, महिला अधिकारों की कमी, और शिक्षा के अभाव जैसी समस्याएं भारतीय समाज को चुनौती दे रही थीं। सच्चर समिति की रिपोर्ट और डॉ. अंबेडकर के विचारों ने समाज में बदलाव की आवश्यकता को स्पष्ट किया। आर्थिक शोषण के साथ-साथ, भारतीय उत्पादों पर ब्रिटिश कराधान भी एक बड़ा विषय था, जिसने व्यापारियों और उद्योगपतियों को एकजुट किया। इन समस्याओं ने भारतीय राजनीति को एक नई दिशा दी और लोगों को एकजुट करने का कार्य किया।

राजनीतिक वातावरण में उथल-पुथल के बीच, विभिन्न राजनीतिक संगठनों ने जन्म लिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन मूलतः ऐसे ही समय में हुआ, जब देश में स्वतंत्रता के लिए व्यापक जागरूकता और संघर्ष चल रहा था। जबकि मोतीलाल नेहरू और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नेताओं ने कांग्रेस का नेतृत्व किया, वहां अन्य संगठनों, जैसे कि मुस्लिम लीग, ने भी अलग-अलग दृष्टिकोणों के साथ राजनीतिक संवाद को आगे बढ़ाया। कुल मिलाकर, इस समय का भारतीय राजनीतिक परिदृश्य संघर्ष, पहचान और समाज में बदलाव के लिए प्रयासरत था।

प्रमुख व्यक्ति और विचारधाराएँ

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से पहले, कई प्रमुख व्यक्तियों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये व्यक्ति न केवल अपनी नेतृत्व क्षमताओं के लिए जाने जाते थे, बल्कि उन्होंने विभिन्न विचारधाराओं को भी आगे बढ़ाया, जो बाद में कांग्रेस के विकास में मददगार साबित हुई।

उस समय के उल्लेखनीय व्यक्तियों में बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, और सੁਰेंद्रनाथ बैनर्जी शामिल थे। तिलक को ‘लोकमान्य’ के नाम से भी जाना जाता था और उन्होंने राष्ट्रवाद का सिद्धांत विकसित किया। उनके विचारों में भारतीय संस्कृति और परंपरा का महत्व था, जिसके माध्यम से वे लोगों को एकजुट करने का प्रयास करते थे। दूसरी ओर, गोपालकृष्ण गोखले ने समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाया। उन्होंने शिक्षा और सामाजिक सुधारों पर जोर दिया और समग्र विकास के लिए peaceful methods का समर्थन किया।

इन नेताओं की सोच को उनके कार्यों में भी देखा जा सकता है। तिलक का ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा, आम जनता में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करने में सफल रहा। वहीं, गोखले ने ‘मध्यम मार्ग’ को अपनाया, जिसमें वे बुनियादी सामाजिक सुधारों के माध्यम से सक्रियता से परिवर्तन लाने का समर्थन करते थे।

इन विचारधाराओं का संगम ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के पीछे का मूल कारण था। जैसे-जैसे समय बीतता गया, कांग्रेस ने इन नेताओं के विचारों को अपने कार्यक्रम में समाहित किया। इससे पार्टी की विचारधारा का एक व्यापक दृष्टिकोण विकसित हुआ, जिसमें समाजवाद, राष्ट्रवाद और राजनीतिक सक्रियता शामिल थी। इस प्रकार, इन प्रमुख व्यक्तियों के योगदान ने कांग्रेस को एक सशक्त संगठन के रूप में उभरने में सहायता प्रदान की।

पार्टी की प्रारंभिक संरचना

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पूर्व, पार्टी की संरचना और संगठनात्मक ढाँचा अत्यंत महत्वपूर्ण था। प्रारंभिक चरण में, कांग्रेस एक व्यापक मंच के रूप में उभरी, जिसमें विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक विचारधाराओं के प्रतिनिधि शामिल थे। इसकी स्थापना 1885 में हुई थी, और इसके पहले अधिवेशन की अध्यक्षता वॉलेसर ने की थी, जो उस समय के प्रमुख ब्रिटिश प्रशासक थे। तत्कालीन पार्टी की संरचना काफी सरल थी, जिसमें एक केंद्रीय समिति और विभिन्न स्थानीय समितियाँ शामिल थीं।

प्रारंभिक सदस्यों में बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, और एनी बेसेंट जैसे प्रमुख नेता शामिल थे। इन सदस्यों ने भारतीय आज़ादी के लिए संघर्ष करने के साथ-साथ विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर भी ध्यान केंद्रित किया। कांग्रेस का प्राथमिक उद्देश्य भारतीय जनमानस की आवाज को प्रभावी तरीके से सामने लाना और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक सतत आंदोलन का नेतृत्व करना था। अगले कुछ वर्षों में, यह संगठन स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार हुआ।

पार्टी के प्रारंभिक ढांचे में एक स्पष्ट शीर्ष नेतृत्व दिखाई देता था, लेकिन इसके भीतर विभिन्न विचारधाराएं और दृष्टिकोण भी मौजूद थे। कांग्रेस के शुरुआत में किसी एक विशेष विचारधारा का अनुसरण नहीं किया गया, बल्कि विभिन्न दृष्टिकोणों को एक साथ लाने का प्रयास किया गया। इससे यह संगठन अलग-अलग वर्गों और समुदायों का प्रतिनिधित्व करने में सफल रहा। अत्यधिक विविधता के बावजूद, एक साझा लक्ष्य – भारतीय स्वतंत्रता – ने पार्टी को एकजुट रखा। यह प्रारंभिक संगठनात्मक ढाँचा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की दीर्घकालिक सफलता की नींव रहा।

पहला सम्मेलन: स्थान और समय

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहला सम्मेलन 28-31 दिसंबर 1885 को बंबई (वर्तमान मुंबई) में आयोजित किया गया। यह महत्वपूर्ण घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक मील का पत्थर बनी और देश के स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का आरंभिक मंच साबित हुई। सम्मेलन का स्थान बंबई में गंगाधर राव कालेज था, जहाँ अनेक प्रमुख व्यक्तियों ने भाग लिया।

इस सम्मेलन में शामिल होने वालों में विशेष रूप से ए.ओ. ह्यूम, जो इस संगठन के सह-संस्थापकों में से एक थे, और ओमकार नाथ तिवारी जैसे प्रतिष्ठित नेता शामिल थे। ह्यूम ने इस सम्मेलन के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और उनके प्रयासों के फलस्वरूप यह सम्मेलन सफलतापूर्वक आयोजित हुआ। इसके अतिरिक्त, बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले और वी.एन. गाडगिल जैसे महान विचारक भी उपस्थित थे, जिन्होंने भारतीय राजनीति में अपनी गहरी छाप छोड़ी।

सम्मेलन के दौरान, प्रतिनिधियों ने भारतीय समस्याओं, सामाजिक न्याय, और राजनीतिक अधिकारों के विषय में गहन चर्चा की। इस पहले सम्मेलन में कुछ महत्वपूर्ण प्रस्ताव भी पारित किए गए, जो भविष्य में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लक्ष्यों और उद्देश्यों का निर्धारण करने में सहायक सिद्ध हुए। इसके बाद, कांग्रेस संगठन ने एक वैकल्पिक राजनीतिक धारा के रूप में उभरना शुरू किया, और यह भारतीय जनता के बीच एक बड़ा समर्थन प्राप्त करने में सफल रहा।

इस प्रकार, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहला सम्मेलन न केवल एक ऐतिहासिक घटना थी, बल्कि यह उस समय की राजनीतिक जागरूकता के लिए भी एक संकेत था। इसे भारतीय राजनीति के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम मानते हुए, यह सम्मेलन स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की नींव रखने में सहायक सिद्ध हुआ।

संकल्प और घोषणाएँ

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से पूर्व हुए सम्मेलनों में पारित संकल्प और घोषणाएँ भारतीय राजनीति के विभिन्न पक्षों को स्पष्ट करती हैं। ये संकल्प उस समय के राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। 1885 के कांग्रेस के पहले सम्मेलन में अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा की गई, जिसके अंतर्गत विभिन्न वर्गों के हितों का संरक्षण और सुधार की आवश्यकता को महसूस किया गया।

पहले सम्मेलन में एक प्रमुख संकल्प राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग थी। स्वतंत्रता संग्राम की प्रारंभिक गूँज के रूप में इस माँग ने संपूर्ण भारतीय समाज में जागरूकता लाए, जो कि आगे चलकर एक संगठित आंदोलन का रूप ले लेगी। इसके अतिरिक्त, स्थानीय स्वशासन और सरकारी नीतियों में सुधार की आवश्यकता को भी महसूस किया गया। यह संकल्प केवल राजनीतिक अधिकारों तक सीमित नहीं था, बल्कि इसने आर्थिक और सामाजिक सुधार के संदर्भ में भी एक नई दिशा सुझाई।

इसके अलावा, सामाजिक और धार्मिक एकता का मुद्दा भी महत्वपूर्ण था। नेहरू की विचारधारा के अनुसार, विभिन्न धर्मों और जातियों के बीच आपसी समझ एवं सामंजस्य स्थापित करने पर जोर दिया गया। यह विचार उस समय की जटिल सामाजिक स्थिति को सिरे चढ़ाते हुए एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इस प्रकार, ये संकल्प और घोषणाएँ न केवल कांग्रेस के मूलभूत सिद्धांतों की स्थापना करती थीं, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक सशक्त आधार भी प्रदान करती थीं।

इस तरह, पहले सम्मेलन में पारित संकल्प और घोषणाएँ उस समय की राजनीतिक आवश्यकताओं और सामाजिक समस्याओं को दर्शाते हैं, जो भारतीय स्वतंत्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम मानी जाती हैं।

महत्व और प्रभाव

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से पहले सम्मेलन, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था। यह सम्मेलन 1885 में आयोजित किया गया था और भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एक नया युग लाया। इसका उद्देश्य भारतीयों को एकजुट करना और उनके राजनीतिक अधिकारों का संरक्षण करना था। इस सम्मेलन का प्रमुख महत्व इसके द्वारा प्रदान की गई एक मंच था, जहाँ विभिन्न विचारधाराएँ और राजनीतिक आकांक्षाएँ एकत्रित हो सकती थीं। इस प्रकार, विभिन्न क्षेत्रों से आए प्रतिनिधियों ने एक साझा आवाज बनाई, जिससे देश की एकता और समष्टि को बढ़ाने में मदद मिली।

पहले सम्मेलन में रखे गए प्रस्तावों और विचारों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव रखी। इस प्रक्रिया ने भारतीय नेताओं को संघर्ष के लिए एक व्यवस्थित रणनीति विकसित करने की आवश्यकता का अहसास कराया। यह सम्मेलन केवल एक राजनीतिक सभा नहीं थी, बल्कि यह एक समाजिक और सांस्कृतिक बदलाव का प्रारंभ भी था। इसमें शामिल होने वाले प्रतिनिधियों ने स्वराज्य और स्वतंत्रता की दिशा में अपनी आकांक्षाओं को साझा किया, जो बाद में भारत की स्वतंत्रता के लिए अभियान को प्रेरित किया।

इस सम्मेलन का एक अन्य प्रभाव यह था कि इससे ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीयों के बीच जागरूकता बढ़ी। लोग अब अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होते जा रहे थे और परिवर्तनों की आवश्यकता को महसूस कर रहे थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने देशभर में जन जागरूकता फैलाने और सशक्त बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में कार्य किया। इस प्रकार, पहले सम्मेलन और कांग्रेस की स्थापना ने स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी और संपूर्ण राष्ट्र को एक नई दिशा में अग्रसर किया।

समकालीन प्रतिक्रिया

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885) से पूर्व, ब्रिटिश सरकार और विभिन्न भारतीय राजनीतिक समूहों की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण थी। यह प्रतिक्रिया उस समय की राजनीतिक प्रक्रियाओं को समझने में सहायक होती है। कांग्रेस के गठन का उद्देश्य औपनिवेशिक शासन के खिलाफ एक सुसंगठित मोर्चा तैयार करना था। ब्रिटिश सरकार ने इस नए राजनीतिक संगठन पर संदेह व्यक्त किया। सरकार के अधिकारियों का मानना था कि कांग्रेस का गठन भारतीयों में एकता और राजनीतिक जागरूकता को बढ़ावा देगा, जो औपनिवेशिक सत्ता के लिए खतरा साबित हो सकता है।

इस अवधि में, कुछ अन्य भारतीय राजनीतिक संगठनों ने भी कांग्रेस के गठन पर प्रतिक्रिया व्यक्त की। जैसे कि, मुस्लिम लीग और विभिन्न क्षेत्रीय आंदोलनों ने कांग्रेस की कार्यप्रणाली और नेतृत्व पर सवाल उठाए। इस समय, भारतीय समाज में विभिन्न जातियों, धर्मों और राजनीतिक विचारधाराओं के बीच संघर्ष जारी था। उन राजनीतिक संगठनों ने कांग्रेस को एक ऐसे मंच के रूप में देखा, जो केवल एक विशेष वर्ग के हितों की रक्षा कर रहा था।

भले ही कांग्रेस की स्थापना के बहुत से समर्थक थे, लेकिन कई समूहों ने इसे एक साधारण सुधारात्मक आंदोलन के रूप में देखा। इन समूहों ने दावा किया कि ब्रिटिश सरकार के प्रति कांग्रेस की अधिकतर मांगें केवल सुधारात्मक थीं, न कि स्वयं के लिए स्वतंत्रता की संपूर्ण आकांक्षा। इस प्रकार, विभिन्न राजनीतिक दृष्टिकोण और प्रतिक्रियाएँ ही नहीं, बल्कि उन प्रतिक्रियाओं का सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव भी महत्वपूर्ण था। ये सभी पहलू कांग्रेस की स्थापना की पृष्ठभूमि को उजागर करने में सहायक हैं।

निष्कर्ष

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पूर्व सम्मेलन ने भारतीय राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 19वीं सदी के अंत में आयोजित किए गए ये सम्मेलन, भारतीय जनता की आवाज को एकत्रित करने और एकजुटता के भाव को प्रोत्साहित करने में सहायक साबित हुए। इस दौर में, विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक संगठनों के दृष्टिकोण भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे।

समर्थक नेता और बुद्धिजीवी, जिनमें से कई सांसदों के रूप में काम कर चुके थे, ने महत्वपूर्ण विषयों जैसे प्रशासनिक सुधार, सामाजिक न्याय, और औपनिवेशिक नीति के खिलाफ आवाज उठाई। इससे न केवल सभा के सदस्यों के बीच संवाद स्थापित हुआ, बल्कि आम जनता को भी समस्याओं के प्रति जागरूक किया गया। ऐसे सम्मेलनों ने नेताओं को एक मंच पर लाने और विचार-विमर्श के माध्यम से कांग्रेस के गठन के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने में मदद की।

एक तरह से, ये सम्मेलन कांग्रेस की स्थापना का आधार बने। यह स्पष्ट है कि इन सम्मेलनों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहाँ पर न केवल राजनीतिक विचारों का आदान-प्रदान हुआ, बल्कि यह नाइट के तहत एक मजबूत सामाजिक आंदोलन के उपरांत भारतीय राष्ट्रीयता के विकास के लिए एक अहम कदम था।

अंत में, यह कहना उचित होगा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पूर्व सम्मेलनों ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम को गति दी, बल्कि भारतीय जनता को एकजुट करने का कार्य भी किया। यह निश्चित रूप से भारतीय राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में याद किया जाएगा।

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