भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 28 दिसंबर 1885 को हुई, जो भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण मोड़ थी। इसके गठन के पीछे मुख्य उद्देश्य था भारत में राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा देना और जनसंख्या की आवाज़ को एक प्रभावी मंच पर लाना। यद्यपि उस समय ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का बोलबाला था, कांग्रेस ने भारतीय नागरिकों को संगठित करने और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए एक मंच प्रदान किया।
कांग्रेस का प्राथमिक दृष्टिकोण था कि वे भारत के विभिन्न क्षेत्रों से आए हुए प्रतिनिधियों को एकत्रित कर सकें, ताकि वे एक समान प्लेटफॉर्म पर अपने विचारों को प्रस्तुत कर सकें। इसके अलावा, कांग्रेस की स्थापना का एक और बड़ा कारण था भारतीय समाज के विविध वर्गों को एकजुट करना। इस समय, भारतीय समाज में जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर विभाजन स्पष्ट था। कांग्रेस ने इस विभाजन को दूर करने का प्रयास किया, जिससे विविधता में एकता की भावना को बढ़ावा दिया जा सके।
कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों का प्रारंभिक उद्देश्य स्वतंत्रता की ओर बढ़ने के लिए एक संगठनात्मक ढांचा खड़ा करना था। यह एक ऐसी आवाज थी जो भारतीय मुद्दों को ब्रिटिश सरकार के समक्ष खड़ा कर सकती थी। इस तरह के प्रयासों ने सभी भारतीय नागरिकों में एक समान संघर्ष की भावना को उत्पन्न किया। इसके अलावा, कांग्रेस ने शिक्षा, विकास और सामाजिक सुधार के क्षेत्र में भी सक्रिय भूमिका निभाई, विशेष रूप से उन मुद्दों पर जो आम जनता को प्रभावित करते थे।
सारांश में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने भारत के राजनीतिक landscape को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यह न केवल एक राजनीतिक संगठन था, बल्कि यह सभी भारतीय नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक समर्पित मंच भी था। इस आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी और भविष्य में इसे एक शक्तिशाली बल बनाने में योगदान दिया।
पहली वार्षिक कांग्रेस सभा (1885)
1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) की पहली वार्षिक सभा का आयोजन कोलंबिया के ऐतिहासिक शहर मुंबई में किया गया। यह सभा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुई। उस समय की राजनीतिक तथा सामाजिक परिस्थितियों में यह सभा कई प्रमुख मुद्दों की उपस्थिति में आयोजित हुई। इस सभा में सर्वप्रथम भारतीय राष्ट्रीय जागरूकता को एक उचित मंच प्रदान किया गया, जो पश्चिमी देशों की तरह एक सशक्त राजनैतिक संगठन की आवश्यकता को दर्शाता था।
सभा के दौरान कई प्रख्यात सदस्यों ने भाग लिया, जिनमें ए.ओ. ह्यूम, दादाभाई नौरोजी, और गोपालकृष्ण गोखले जैसे नेता शामिल थे। इन नेताओं ने सभा की प्रारंभिक बैठकों में विचार-विमर्श किया और भारतीयों के अधिकारों और प्राथमिकताओं की सुरक्षा हेतु एक सशक्त ढांचे की आवश्यकता को संज्ञान में लिया। इस बैठक में जिन मुद्दों पर चर्चा की गई, उनमें ब्रिटिश शासन के तहत भारतीयों की परिस्थितियों का सुधार, प्रशासन में भारतीय भागीदारी, और आर्थिक नीतियों में सुधार को प्राथमिकता दी गई।
सभा का प्रमुख उद्देश विषयों पर विचार करना और उन्हें एक संगठित रूप में उठाना था। इसमें यह स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया गया कि भारतीयों का अधिकार है कि वे अपने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को उठाएँ। इस पहली वार्षिक कांग्रेस सभा ने भारतीय राष्ट्रीयता की भावना को जागरूक करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की और इसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखने का कार्य माना गया। साथ ही, यह भारतीयों की एकता और संघर्ष की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम भी साबित हुआ।
1890 के दशक का राजनीतिक परिदृश्य
1890 का दशक भारतीय राजनीति में एक परिवर्तनकारी समयकाल साबित हुआ, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियाँ तेजी से बढ़ीं और कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं। इस समय अंग्रेजी सरकार की नीतियों में कई ऐसे तत्व थे, जिन्होंने जनता को असंतुष्ट किया। इससे कांग्रेस की भूमिका में वृद्धि हुई, लेकिन साथ ही कुछ चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। इस दशक के प्रारंभ में, राष्ट्रीय कांग्रेस ने आम जनता के मुद्दों को उठाना शुरू किया। समाजिक-आर्थिक सवालों को जोरदार तरीके से उठाया गया, जिससे आम भारतीयों का समर्थन कांग्रेस की ओर आकर्षित हुआ।
हालांकि, इसके कुछ समय बाद राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया। अंग्रेज सरकार ने विभाजन की नीति अपनाई, जो न केवल कांग्रेस की स्थिति को कमजोर करती गई, बल्कि इसके अन्दर भी मतभेद उत्पन्न कर दिए। 1892 के वर्ष में पारित एक कानून ने कांग्रेस की शक्ति को सीमित कर दिया और इसे विपक्षी स्वरूप देने का प्रयास किया गया। इसके फलस्वरूप, कांग्रेस के नेताओं ने इस नीति का विरोध किया और फिर से अपने सिद्धांतों पर जोर देने लगे।
इस दशक के अंत में, कांग्रेस में विभाजन की स्थिति स्पष्ट होने लगी। जबकि कुछ नेता संवैधानिक सुधारों का समर्थन कर रहे थे, वहीं अन्य अधिक कट्टर रुख अपनाने की वकालत करते रहे। इस दौरान, भारतीय समाज में जागरूकता का स्तर उठता गया और यह भावनाएँ स्वतंत्रता की ओर अग्रसर होने लगीं। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस ने धीरे-धीरे एक सशक्त संगठन के रूप में उभरना शुरू किया, जो अगले दशकों में स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करेगा।
सामाजिक सुधार और कांग्रेस का दृष्टिकोण
1885 से 1905 के बीच, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने देश के सामाजिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया। इस अवधि के दौरान, कांग्रेस के नेताओं ने स्पष्ट रूप से समाज में व्याप्त असमानताओं और अन्यायों के खिलाफ आवाज उठाई। यह समय था जब भारत में सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक रूप से कई चुनौतियाँ थीं, और कांग्रेस ने समझा कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए सामाजिक सुधार अनिवार्य हैं।
कांग्रेस ने जातिवाद, पुरानी परंपराओं, और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ अपने एजेंडे में सुधारों को शामिल किया। उनके नेताओं जैसे कि बाल गंगाधर तिलक, सुभाष चंद्र बोस, और गोपालकृष्ण गोखले ने जन जागरूकता के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किए। उन्होंने मानवीय अधिकारों की सुरक्षा और महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए विशेष रूप से प्रयास किए। महिलाओं के अधिकारों पर ध्यान देने से कांग्रेस ने समाज में एक सकारात्मक बदलाव लाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया।
कांग्रेस ने विभिन्न समाजिक सुधार संगठनों के साथ सहयोग किया ताकि एक व्यापक आंदोलन का निर्माण किया जा सके। इसके तहत सत-निष्कासन, सामाजिक समरसता, और शिक्षा के अधिकार पर जोर दिया गया। कांग्रेस का उद्देश्य था कि वे जनसंख्या के सभी वर्गों को अपने अभियान में शामिल करें ताकि व्यापक जन समर्थन जुटाया जा सके।
अंतत: सामाजिक सुधार को केंद्र में रखते हुए, कांग्रेस ने जनमानस के बीच अपनी स्थिति मजबूत की। ऐसे उपायों ने न केवल समाज को जागरूक किया, बल्कि इससे कांग्रेस की राजनीति को भी मजबूती मिली। इस प्रकार, सामाजिक सुधार ने कांग्रेस के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम का अभिन्न हिस्सा बन गया।
1905 का बंगाल विभाजन और कांग्रेस का विरोध
1905 में बंगाल का विभाजन एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना थी, जिसने भारतीय स्वतंत्रता के संग्राम को गति दी। यह विभाजन ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा औपनिवेशिक नीति के तहत किया गया था, जिसका उद्देश्य हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच विभाजन पैदा करना और भारतीय राष्ट्रीयता को कमजोर करना था। बंगाल के तत्कालीन विभाजन के पीछे कई कारक थे, जैसे कि प्रशासनिक कठिनाइयाँ और क्षेत्रीय विकास में असमानता। हालाँकि, स्थानीय नेताओं और कांग्रेस के सदस्य इस कदम को राष्ट्रीय एकता को तोड़ने के प्रयास के रूप में देख रहे थे। यह विभाजन भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।
कांग्रेस ने बंगाल विभाजन के विरोध में कई प्रदर्शन और आंदोलन आयोजित किए। यह विरोध केवल एक क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं था, बल्कि पूरे देश में फैल गया। लेखकों, शिक्षाविदों, और राजनीतिक नेताओं ने विभाजन के खिलाफ सशक्त आवाज उठाई। विपणन और सांस्कृतिक संगठनों ने भी इस संघर्ष में भाग लिया, जिससे विरोध की एक व्यापक लहर उत्पन्न हुई। कांग्रेस ने विभाजन के खिलाफ एक जन जागरूकता अभियान चलाया, जिसमें लोगों को संगठित करने के लिए मीटिंग, रैलियाँ और भाषणों का सहारा लिया गया।
विरोध का परिणाम यह हुआ कि यह न केवल बंगाल के स्थानीय लोगों के लिए बल्कि समग्र राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में एक बड़ा मुद्दा बन गया। इससे कांग्रेस की लोकप्रियता में वृद्धि हुई, और जनता की एकता को बढ़ावा मिला, जो बाद में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक महत्वपूर्ण कारक साबित हुआ। हालांकि, ब्रिटिश शासन ने इस विभाजन को स्थायी बनाने के लिए अनेक उपाय किए, लेकिन उस समय की कांग्रेस ने अपने विरोध के स्वरूप को और भी मजबूत किया। इस समय की घटनाएँ भारतीय राष्ट्रीयता की दिशा में नई संभावनाएँ और उम्मीदें जगाने में सफल रहीं।
महत्वपूर्ण कांग्रेस नेता और उनके योगदान
1885 से 1905 के बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विकास विभिन्न नेताओं के योगदान से महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित हुआ। इस समय के दौरान कई प्रमुख नेताओं ने कांग्रेस के उद्देश्यों को आकार देने और स्वतंत्रता संग्राम को तेज़ करने में अहम् भूमिका निभाई। उनमें से एक प्रमुख नेता थे पंडित मदन मोहन मालवीय। उनका दृष्टिकोण शिक्षा के प्रसार और भारतीय संस्कृति के संवर्धन पर केंद्रित था। उन्होंने शिक्षण संस्थानों की स्थापना की और समाज में जागरूकता फैलाने के लिए अनेक प्रयास किए।
इसके अलावा, बाल गंगाधर तिलक का योगदान भी अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। उन्होंने कांग्रेस के भीतर अधिक क्रांतिकारी विचारों का प्रतिनिधित्व किया। तिलक का नारा “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” भारतीयों में आत्मविश्वास का संचार करता था। वे पारंपरिक कांग्रेस नेताओं की सैद्धांतिकता के विपरीत थे और जन समूह के बीच सीधे जाकर उन्हें जागरूक करने में विश्वास रखते थे। उनकी विचारधारा ने कांग्रेस के भीतर एक नई ऊर्जा और गतिविधि का संचार किया।
गांधी जी, जो बाद में कांग्रेस के महान नेता बने, ने इस समय में अपने कार्यों से सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों को हल करने की दिशा में ध्यान केंद्रित किया। उनकी प्राथमिकता समाज में एकता और सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देना थी। और फिर, गोपाल कृष्ण गोखले, जिन्होंने कांग्रेस को एक आधुनिक रूप देने में सहायता की, उनके प्रभावी कार्यों से कांग्रेस की नीति और दृष्टिकोण पर स्थायी छाप छोड़ी।
इस प्रकार, ये नेता और अनेक अन्य कार्यकर्ता कांग्रेस के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की नींव को मजबूत बनाने में उनके विचार तथा योगदान अतुलनीय रहे।
स्वदेशी आंदोलन और कांग्रेस की भूमिका
स्वदेशी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, जो 1905 में बंगाल के विभाजन के संदर्भ में शुरू हुआ। इस आंदोलन का उद्देश्य भारतीय उत्पादों को बढ़ावा देना और विदेशी वस्तुओं के प्रति जन जागरूकता बढ़ाना था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया, क्योंकि इसका मानना था कि स्थानीय उद्योगों और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षण देना आवश्यक है। कांग्रेस ने भारतीय जनमानस को एकजुट करने के लिए स्वदेशी उत्पादों को अपनाने पर जोर दिया।
कांग्रेस के कई नेता, जैसे कि बिपिन चंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय, ने स्वदेशी आंदोलन के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने देशवासियों से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने का आग्रह किया, जिससे कि स्थानीय उद्योगों को प्रोत्साहन मिल सके। इस अभियान की सफलता इस बात में भी थी कि लोगों ने अपने पैसों को स्वदेशी सामान खरीदने में खर्च करना शुरू किया, जिसे ‘स्वदेशी’ कहा गया। कांग्रेस ने कई उत्सव, प्रदर्शनी और रैलियाँ आयोजित कीं, ताकि स्वदेशी के प्रति जागरूकता बढ़ाई जा सके।
साथ ही, कांग्रेस ने औपचारिक रूप से स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए चित्रित और प्रचारित करना भी शुरू किया। इसके माध्यम से, नागरिकों को यह समझाया गया कि विदेशी वस्त्रों का उपयोग करना उनके स्वाभिमान को चोट पहुँचाता है। कांग्रेस ने समाज में स्वदेशी भावनाओं को प्रबल करने के लिए विविध साहित्य और समाचार पत्रों का सहारा लिया, जिससे एक व्यापक जन समर्थन का निर्माण हुआ। इस प्रकार, स्वदेशी आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका केवल समर्थन तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह आंदोलन को संगठित और प्रबंधित करने में भी महत्वपूर्ण साबित हुई।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग के रिश्ते
1885 से 1905 के बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच के संबंध महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रमों से भरे हुए थे। कांग्रेस, जो ब्रिटिश उपनिवेशिक शासन के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता की एक मुख्य आवाज थी, और मुस्लिम लीग, जो मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों के संरक्षण के लिए स्थापित हुई थी, दोनों ने एक-दूसरे के साथ विभिन्न समयों पर सहयोग किया और तनाव के क्षणों का अनुभव किया।
प्रारंभिक वर्षों में, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच संबंध सहकारी रहे। दोनों संगठनों ने सामूहिक रूप से स्वराज की लड़ाई का हिस्सा बनने की कोशिश की। 1906 में, जब मुस्लिम लीग ने अल्लाह बख्श की अध्यक्षता में अपने लक्ष्यों को स्पष्ट किया, तब दोनों के साझा उद्देश्यों में एक डिग्री की समानता दिखाई दी। इस समय, वे एकजुट होकर ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालने के लिए संयुक्त रूप से मीटिंग्स आयोजित करते थे।
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इस प्रकार, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच के रिश्ते का इतिहास सहयोग और संघर्ष का मिश्रण है। दोनों संगठनों ने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन साथ ही इनके बीच परस्पर गतिविधियों ने भारतीय राजनीति की दिशा को भी प्रभावित किया।
1905 के बाद कांग्रेस की दिशा
1905 के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने कार्यक्रमों और गतिविधियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। यह परिवर्तन मुख्य रूप से विभाजन के दौर से उत्पन्न प्रतिक्रियाओं और स्वतंत्रता की खोज में नई रणनीतियों के विकास पर आधारित थे। इस अवधि में कांग्रेस ने समाज के विभिन्न वर्गों, विशेषकर मध्यवर्गीय और श्रमिक वर्ग के हितों को ध्यान में रखते हुए अपने दृष्टिकोण को विकसित किया। इसके परिणामस्वरूप, कांग्रेस ने न केवल राजनीतिक सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया, बल्कि सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को भी बेहतर तरीके से उठाना शुरू किया।
इसके अतिरिक्त, इस समय के दौरान कांग्रेस ने अपने भीतर के नीति-निर्धारण में विविधता को अपनाया। इसके सदस्य अब केवल औपचारिक रूप से ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे थे, बल्कि उन्होंने समाज के नए सवालों को स्पष्ट रूप से पहचानना और उनका समाधान निकालना भी शुरू कर दिया। जैसे-जैसे विभाजन का भूत भारतीय राजनीति में व्याप्त होता गया, कांग्रेस ने अपने रणनीतिक दृष्टिकोण को भी समायोजित किया। उन्होंने अपने कामकाज में एकता और दलगत भावना को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न आंदोलनों का आयोजन किया।
1905 के बाद, कांग्रेस ने कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय आंदोलनों में भाग लिया, जैसे स्वदेशी आंदोलन और असहयोग आंदोलन, जो भारतीय जनता के बीच स्वदेशी उत्पादों के प्रति जागरूकता फैलाने के साथ-साथ विदेशी शासन के खिलाफ एकजुटता को बढ़ावा देने हेतु डिजाइन किए गए थे। इस समय में, पार्टी ने विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं को अपनाया और विस्तार में गई, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि कांग्रेस अपनी गतिविधियों के माध्यम से केवल राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने तक सीमित नहीं रह गई, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय की दिशा में भी कदम उठा रही थी।